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________________ जैनधर्म के मूलतत्त्व और व्यावहारिक वेदान्त - स्वामी ब्रह्मेशानन्दजी, चण्डीगढ़ वेदान्त प्राचीन होते हुए भी व्यावहारिक जीवन में स्वामी विवेकानन्द प्रतिपादित वेदान्त का सिद्धान्त नवीनतम है। वस्तुत: यह कहना ही उचित होगा कि स्वामी विवेकानन्द ने पुरातन व्यावहारिक वेदान्त की आधुनिक युग के अनुरूप एक नयी व्याख्या भर की है। उपर्युक्त विश्लेषण से यह भी स्पष्ट हो जायेगा कि जैनधर्म का परम्परागत हिन्दू धर्म से व्यावहारिक एवं सैद्धान्तिक मतभेद होते हुए भी व्यावहारिक वेदान्त के साथ उसकी समानताएं अधिक और मतभेद कम हैं। स्वामी विवेकानन्द की वेदान्त-सम्बन्धी परिभाषा अत्यन्त व्यापक है। उनके अनुसार धर्म का अर्थ वेदान्त ही है और वेदान्त के इस व्यापक दायरे में सभी धर्मों का समावेश हो जाता है। इस व्यापक परिभाषा को स्वीकार न करने पर भी, जैसाकि हम कह चुके हैं, जैनधर्म और वेदान्त में काफी समानताएँ हैं। यही नहीं, दोनों की पद्धतियाँ एक-दूसरे की परिपूरक हो सकती हैं जैसाकि होना ही चाहिए। वेदान्त जैनधर्म से कुछ सीख सकता है और जैनधर्म भी वेदान्त से, अपनी मौलिकता बनाये रखते हुए, लाभ उठा सकता है। उदाहरण के लिए व्यावहारिक वेदान्त के 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' के सिद्धान्त को जैनधर्म आसानी से आत्मसात कर सकता है, क्योंकि आत्मा के चैतन्य, नित्य-शुद्ध-बुद्ध स्वरूप में तो वह विश्वास करता ही है। दूसरी ओर आधुनिक व्यावहारिक वेदान्तवादी जैनधर्म में तप पर दिये गये महत्त्व से लाभ उठा सकते हैं। क्षमापना एवं नवकार मन्त्र का भी अधिक व्यापक उपयोग जैनेतर वेदान्ती भी कर सकते हैं। संवत्सरी के दिन सभी जैन संसार के समस्त प्राणियों से क्षमायाचना करते हैं तथा स्वयं भी सभी को यह कहकर क्षमा करते हैं खम्मामि सव्व जीवेसु, सव्वेजीवा खमन्तु मे। मित्ति मे सव्व भूदेस, वेरं मज्झं ण केणवि।। "अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ। सब जीव मुझे क्षमा करें। मेरी सभी से मैत्री है, किसी से भी बैर नहीं है।" जैन धर्म का णमोकार मन्त्र भी एक अति पवित्र, सुन्दर एवं उदार मन्त्र है, जिसमें संसार के समस्त एवं सिद्ध महामनाओं को प्रणाम किया गया है। वेदान्तियों को ऐसे शुभ मन्त्र को स्वीकार करने में क्या आपत्ति हो सकती है? सच्चा धर्म मतभेद नहीं सिखाता। वह प्राणियों को एक दूसरे के निकट लाता है। वेदान्त और जैनधर्म दोनों का ही उद्देश्य यही है। यही कारण है कि भारत में जैनधर्म और आधुनिक नव वेदान्तवादियों के बीच सदा-सर्वदा मैत्री एवं सद्भाव बना रहा है और निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इन्हीं सब बिन्दुओं पर इस आलेख में विस्तार में विचार किया गया है। 108
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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