________________ प्रत्येक गुण का स्वरूप सम्पूर्ण आत्मा अर्थात् आत्मा के समस्त गुण हैं, इसलिए तात्त्विक रूप से आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों में कोई अन्तर नहीं है। इस अपेक्षा से जो सत्ता आत्मा है, वही ज्ञान भी है, वही दर्शन भी है ............ / एक चेतन सत्ता के विभिन्न स्वभावों में तात्त्विक रूप से अभेद होने पर भी उनमें नयात्मक बुद्धि द्वारा भेद स्थापित किया जाता है तथा एक स्वभाव को प्रधान और अन्य को गौण करते हुए उस स्वभाव का एक विशेष नाम और लक्षण दिया जाता हैं। इन अनेक स्वभावों के नाम लक्षणादि की अपेक्षा भेदात्मक पक्ष को गण तथा इनके तात्त्विक रूप से अभेदात्मक पक्ष को गणी कहा जाता है। आत्मा-गणी और ज्ञान-गण में शाब्दिक और लाक्षणिक रूप से भेद किया जाना सम्भव होने पर भी तात्त्विक रूप से ये पृथक्-पृथक् सत्ता न होकर एक अभिन्न सत्ता है। जैन-दर्शन ज्ञानमय आत्मा का आराधक है। इस दर्शन के अनुसार आत्मा अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख से परिपूर्ण तथा सर्वज्ञत्व शक्ति से युक्त ज्ञानमय तत्त्व है। अपने इस स्वरूपके कारण आत्मा मुक्तावस्था में सर्वज्ञ होता है। संसारी अवस्था में उसका यह ज्ञानमय स्वरूप मोह, राग, द्वेषादि विकारों से युक्त होकर अल्प ज्ञान रूप में परिणमित हो रहा है। जैन साधना पद्धति इन दोषों को समाप्त कर अपने पूर्ण विकसित और सर्वगुण सम्पन्न ज्ञानमय स्वरूप की प्राप्ति का उपाय बताती है तथा यह दावा करती है कि आत्मा इस साधना पद्धति को अंगीकार कर अपने अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख से सम्पन्न अनन्त ज्ञानमय शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। - -