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________________ ज्ञानदर्शनवीर्यात्मक स्वभाव ही निश्चय से सुख का कारण है। इस अवस्था में जीव मिथ्यात्व के प्रबल उदय के वशीभूत होने पर नशे में धुत्त व्यक्ति के समान असमीचीन प्रवृत्ति करता है। वह 'यह विषय मुझे इष्ट है' इस आसक्त भाव से युक्त होकर इन्द्रियों के विषयों की ओर दौड़ने रूप अपने ज्ञानदर्शन वीर्यमय स्वभाव में परिणमन करता हुआ स्वयमेव सुखत्व को प्राप्त करता है। आत्मा की यह भौतिक सुख में आसक्ति तथा लीनता उसके ज्ञानदर्शनवीर्यगुणों की निम्नतम पर्याय है। एक सम्यग्दृष्टि व्यक्ति बाह्य पदार्थों प्रति हेय उपादेय बुद्धि से युक्त होकर प्रवृत्त नहीं होता, बल्कि उसके लिए अपने चैतन्य स्वरूप में अवस्थिति और चेतना का पूर्ण विकास ही उपादेय है। बाह्य पदार्थ उसके लिए न त्याज्य होते हैं, न ग्राह्य होते हैं। इसके विपरीत वे विशुद्ध रूप से उसके ज्ञान का विषय होते हैं। वह मात्र उनके तथ्यात्मक स्वरूप को जानता है, लेकिन वह उनको भोगते हुए सुखी या दुःखी नहीं होता। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति अपनी चेतना के विषयात्मक पक्ष में रस नहीं लेता बल्कि वह अपनी चेतना के ज्ञानदर्शन सुखवीर्यमय विषयीरूपता को भोगता हुआ आनन्दमय सत्ता है। सुख आत्मा का स्वभाव है। यह आत्मा में कहीं बाहर से नहीं आता बल्कि आत्मा का सद्भाव मात्र ही आनन्दमय है। आत्मा का यह सुख गुण उसमें अन्य गुणों से निरपेक्ष रूप से अवस्थित नहीं है बल्कि यह आत्मा के ज्ञानदर्शनवीर्यात्मक स्वरूप की विशेषता है। भौतिक सुख की अनुभूति आत्मा के इस स्वरूप की बहुत निम्नस्तरीय अभिव्यक्ति है। जैसे-जैसे आत्मा अपने ज्ञानादि स्वरूपमय चेतना की उत्कृष्टतर अवस्थाओं को प्राप्त करता जाता है, उसके सुख में वृद्धि होती जाती है तथा इन गणों के पूर्ण विकास से वह अनन्त आनन्दरूपता प्राप्त करता है। अमृतचन्द्रस्वामी कहते है, “दर्शन और ज्ञान को वीर्य तीक्ष्ण करता है, दर्शन और ज्ञान की तीक्ष्णता से निराकुलता उत्पन्न होती है। यह निराकुलता ही सुखस्वरूप है तथा हे देव! आप इस सुख में गहन रूप से निमग्न हैं। इसप्रकार ज्ञान का दर्शन और वीर्य के समान ही सुख से भी तादात्म्य सम्बन्ध है। ज्ञान ही सुख स्वरूप होता है तथा सुख ज्ञानमय होकर ही विद्यमान होता है। इन दोनों गुणों में यह विशेषण विशेष्य भाव विद्यमान होने के साथ ही इनमें नाम, लक्षण, प्रयोजन की अपेक्षा भेद भी है। ज्ञान और आत्मा में भेदाभेद सम्बन्ध उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा का ज्ञान गुण दर्शन, वीर्य और सुखात्मक स्वभाव से परिपूर्ण है। ज्ञान में आत्मा के दर्शन, वीर्यादि विशेष गुण ही विद्यमान नहीं है बल्कि आत्मा के अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व जैसे समस्त सामान्य गुण भी ज्ञान का स्वभाव हैं। ये सभी गुण ज्ञान में विद्यमान होकर उसे संवेदनात्मकता, प्रवृत्यात्मकता, सत्स्वरूपता आदि स्वभाव प्रदान करते है तथा विषय प्रकाशक रूप विशिष्ट स्वरूप में ज्ञान के सदभाव को सम्भव बनाते हैं। साथ ही ज्ञान भी आत्मा के दर्शन. वीर्यादि समस्त गुणों में रहते हुए, उन सभी को ज्ञानरूपता प्रदान करते हुए उनके संवेदनात्मकता, क्रियाशीलता आदि रूप विशिष्ट स्वरूप को सम्भव बना रहा है तथा इन गुणों में ज्ञानरूपता का अभाव होने पर इनका सद्भाव भी असम्भव हैं। जैसे - वीर्य स्वयं के प्रति 'मैं इस कार्य का सम्पादन कर रहा हूँ' रूप निश्चयात्मक बुद्धि स्वरूप होता हुआ ही अपने क्रियात्मक अनुभूति रूप विशिष्ट स्वरूप में अवस्थित होता है। इस प्रकार आत्मा सम्पूर्णत: एक-अनेकात्मक, भेद-अभेदात्मक तत्त्व है। आत्मा का स्वरूप उसके ज्ञान, दर्शनादि समस्त गुण हैं और उसके -1-52
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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