________________ पक्ष अनिवार्यतया विद्यमान होता है कि यह परिस्थिति हमारे जीवन और सुख शान्ति के लिए खतरा होने के कारण अवांछनीय है और इसलिए इसका इस विधि से निराकरण आवश्यक है तथा मुझमें इसका सामना करके इसका निराकरण करने की क्षमता विद्यमान है। इस एक अखण्ड ज्ञानदर्शनवीर्यमय सत्ता में नयात्मक बुद्धि द्वारा विश्लेषणपूर्वक निश्चयात्मक, भावनात्मक और शक्त्यात्मक पक्ष में भेद स्थापित करके उन्हें क्रमश: ज्ञान, दर्शन और वीर्य रूप पृथक्-पृथक् नाम दिये जाते है, ज्ञान को स्वार्थ व्यवसायात्मक रूप से, दर्शन को स्वार्थ संवेदनात्मक रूप से और वीर्य को क्रियात्मिका शक्ति रूप से परिभाषित किया जाता है। ज्ञान, दर्शन और वीर्य में मात्र नाम और लक्षण की अपेक्षा ही भेद नहीं है अपितु इनके कारण भी भिन्न-भिन्न है। आत्मा में ज्ञान शक्ति का सद्भाव ज्ञानावरणीय कर्म के, दर्शन शक्ति का सद्भाव दर्शनावरणीय कर्म के तथावीर्य शक्ति का सद्भाव वीर्यान्तराय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशमपूर्वक होता है। ज्ञान, दर्शन औरवीर्य में इन भेदों के कारण ये आत्मा के तीन अलग गुण हैं तथा ज्ञान के विशिष्ट स्वरूप से वीर्य का तथा वीर्य के विशिष्ट स्वरूप से उसके ज्ञान गुण का विशिष्ट स्वरूप निर्धारित नहीं होता। जैसे एक बुद्धिमान और विद्वान् व्यक्ति आलसी और कायर भी हो सकता है तथा कर्मठ और साहसी भी हो सकता है। वह विभिन्न क्रियाओं के सम्पादन के संज्ञानात्मक पक्ष को भली प्रकार जानते हुए भी कार्य सम्पादन के प्रति उदासीन भी हो सकता है और उत्साही भी हो सकता है। दोनों ही स्थितियों में वीर्य ज्ञान की ही विशेषता होता हुआ विद्यमान होता है। जब व्यक्ति किसी कार्य के सम्पादन की प्रक्रिया को जानने के साथ ही स्वयं की उस कार्य को सम्पन्न करने की शक्ति का भी अनुभव करता है तो उसका ज्ञान वीर्यमय ज्ञान है तथा जब वह अपने अन्दर इस शक्ति के अभाव को महसूस करता है तो उसका ज्ञान वीर्यहीन ज्ञान है। जिस प्रकार वीर्य का विशेष स्तर आत्मा के ज्ञान गुण की विशेषता होता हुआ विद्यमान होता है उसी प्रकार उसके ज्ञान का विशिष्ट स्वरूप उसकी क्रियात्मिका शक्ति की विशेषता होता हुआ ही विद्यमान होता है। जैसे एक मन्द बुद्धि और बुद्धिमान दोनों ही व्यक्ति समान रूप से कर्मठ और संघर्षशील हो सकते हैं. उनमें समस्याओं का समाधान करने का हौसला समान रूप से विद्यमान हो सकता है, लेकिन उनके इस विषयक ज्ञान का वैशिष्ट्य उनकी कार्यशैली के वैशिष्ट्य को निर्धारित करता है। हम क्या कर रहे हैं, उसके क्या परिणाम होंगे तथा हम अपने अभीष्ट लक्ष्यों को किस प्रकार प्राप्त करें, प्रयत्न में विद्यमान यह संज्ञानात्मकता यदि मिथ्या तथा निम्नस्तरीय होती है तो इसके अनुरूप कार्य करके व्यक्ति समस्याओं को समाप्त करने के स्थान पर और उलझा देता है तथा यदि यह यथार्थ और उत्कृष्ट होती है तो वह परिस्थितियों पर नियन्त्रण स्थापित करने तथा इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार करने में सक्षम होता है। बाह्य जगत् में विभिन्न कार्यों के सम्पादन के स्तर पर ही ज्ञान और वीर्य परस्पर विशेषण-विशेष्य भाव से युक्त नहीं होते अपितु ज्ञानार्जन की प्रक्रिया का सद्भाव भी इन गुणों की परस्पर अन्तर्व्याप्ति रूप एक अस्तित्वरूपता के कारण सम्भव हो पाता है। आत्मा एक उपयोगात्मक तत्त्व है। सदैव किसी न किसी पदार्थ को विषय बनाकर उसे जानने देखने के लिए उद्यम करना और जानने देखने की क्रिया करना उसका शाश्वत स्वभाव है। वह जब जिस पदार्थ पर, पदार्थ के जिस पक्ष पर ध्यान केन्द्रित करके उसे जानने देखने हेतु पुरुषार्थ करता है तब अपनी ज्ञान शक्ति के विकास की मात्रा के अनुसार उसे जानता है। इस प्रकार आत्मा के उपयोगात्मक स्वरूप में दो विशेषताएं गर्भित हैं - जानने देखने हेतु उद्यम रूप वीर्यरूपता तथा जानने देखने की क्रिया रूप ज्ञानदर्शनरूपता। आत्मा को जानने देखने हेतु पुरुषार्थ एक ज्ञान रहित क्रिया न होकर ज्ञानमय क्रिया है। वीर्यवान् -1-60 -