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________________ होकर एक अखण्ड ज्ञानदर्शनमय सत्ता है। दूसरे शब्दों में ज्ञान की ज्ञानरूपता उसमें दर्शनरूपता का सद्भाव होने पर ही तथा दर्शन की दर्शनरूपता उसके ज्ञानमय होने पर ही सम्भव है तथा ज्ञान रहित दर्शन और दर्शन रहित ज्ञान की सत्ता कभी नहीं होती। जैसे- “मैं उष्ण पदार्थ को जान रहा हूँ" यह स्पर्शन मतिज्ञान त्वचा से उष्ण पदार्थ कबे अचक्षु दर्शन से सम्पन्न निश्चयात्मक अनुभूति है। त्वचा से उष्ण पदार्थ का दर्शन, संवेदन, अवभास या महसूस करते हुए ही व्यक्ति उस पदार्थ को शीतल स्पर्श, रंग, गन्ध आदि अन्य गुणों से विलक्षण उष्ण स्पर्श रूप विशिष्ट स्वरूप में पहचानता है तथा इस दर्शन के अभाव में यह समझ पाना पूर्णतया असम्भव है कि उष्णपना क्या होता है, किस विशिष्ट स्वरूप को उष्ण कहा जाता है। इसी प्रकार किसी पदार्थ के प्रति व्यक्ति को “यह अग्नि है" यह ज्ञान तभी हो सकता है जबकि उसे विभिन्न इन्द्रियों से पदार्थ के भसुर रूप, उष्ण स्पर्श आदि गुणों की संवेदनाएं प्राप्त हो तथा वह इन संवेदनाओं से युक्त होकर पदार्थ को पृथ्वी, जलादि से विलक्षण अग्नि रूप विशिष्ट स्वरूप में पहचान सके। इस प्रकार मतिज्ञान मात्र ज्ञान न होकर ज्ञानदर्शनमय अनुभति है। उसमें अपने विाय के प्रति वस्तुस्थिति ऐसी ही है" यह अनुभूति, प्रतीति या विश्वास दर्शन से परिपूर्ण होने पर ही होताहै तथा दर्शन से रहित बुध्याकार ज्ञान न होकर मानसिक कल्पनामात्र है। ज्ञान और वीर्य में भेदाभेद सम्बन्य वीर्य शब्द का अर्थ है शक्ति। आत्मा का वीर्य गुण उसकी संकल्प शक्ति तथा कार्य सम्पादन की सामर्थ्य और प्रवृत्ति का परिचायक है। प्रत्येक आत्मा में स्वभावत: अनन्तवीर्यशक्ति विद्यमान है जो संसारी अवस्था में वीर्यान्तराय कर्म से आवृत्त होकर मन्द हो जाती है। इस अवस्था में जीव की वीर्य शक्ति जितनी मात्रा में प्रकट होती है वह उसी के अनुरूप विभिन्न शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक आदि क्रियाओं का सम्पादन कर पाता है। जैसे- पृथ्वी कायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों में वीर्य शक्ति बहुत कम मात्रा में प्रकट होती है इसलिए वे मात्र कर्मोदयजनित सुख-दुःख का ही भोग कर पाते है। इसके विपरीत द्विइन्द्रिय से लेकर संज्ञाी पञ्चेन्द्रिय जीवों के इस गुण की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति होने के कारण वह इष्ट प्राप्ति और अनिष्ट परिहार हेतु पुरुषार्थरत होने की क्षमता से सम्पन्न होते हैं। जिस जीव के वीर्यान्तराय कर्म का जितना प्रखर क्षयोपशम होता है वह उतना ही अधिक उर्जावान् होता है और उसमें खतरों का सामना करने, विपरीत परिस्थितियों में धैर्य बनाये रखने और उन्हें अपने अनुकूल बनाने हेतु संघर्ष करने की क्षमता उतनी ही अधिक होती है। जीव के समक्ष विभिन्न समस्याओं, इच्छाओं, आवश्यकताओं आदि का सद्भाव उसकी अपूर्णता का परिचायक है तथा इसलिए इच्छाओं की तृप्ति तथा समस्याओं के समाधान हेतु किया जाने वाला समस्त पुरुषार्थ आत्मा के वीर्य गुण की निम्नस्तरीय अभिव्यक्ति है। आत्मा के वीर्य गुण की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति ज्ञान चेतना के रूप में होती है। इस स्तर पर विद्यमान आत्मा का आत्मबल सीमाहीन होता है। उसकी समस्त आवश्यकताएं समाप्त हो जाती है। विश्व के किसी भी पदार्थ, किसी भी घटना में उसके लिए समस्या बनने की सामर्थ्य शेष नहीं रहती तथा वह विश्व के प्रत्येक पदार्थ को एक साथ विषय बनाता हुआ सर्वज्ञ, सर्वदर्शी होता है। वीर्य आत्मा की कर्तृत्व शक्ति का परिचायक है तथा इस शक्ति की अभिव्यक्ति कार्य सम्पादन के ज्ञानपूर्वक ही सम्भव होती है। जैसे खतरों का सामना करने की सामर्थ्य रूप वीर्यरूपता में यह संज्ञानात्मक तथा भावनात्मक - 18-5
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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