________________ जैन तत्त्वमीमांसा का वैशिष्ट्य "ज्ञान और आत्मा में भेदाभेद सम्बन्ध" - सुश्री डॉ. राजकुमारी जैन, अजमेर जैनदर्शन ज्ञानमय आत्मा का आराधक है। इस दर्शन के अनुसार ज्ञान और आत्मा दो भिन्न-भिन्न तत्त्व नहीं हैं अपितु कुन्दकुन्दाचार्य के शब्दों में ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान है। उनके इस सिद्धान्त को पूरी दृढ़ता से प्रतिपादित करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं, “आत्मा ज्ञान है, वह स्वयं ज्ञान ही है तथा वह जानने के अतिरिक्त करता ही क्या है? आत्मा को ज्ञानमय तत्त्व स्वीकार करने का अर्थ यह नहीं है कि आत्मा शुष्क, नीरस, निष्क्रिय, बौद्धिक चेतनामात्र है। इसके विपरीत अपने मूल स्वरूप में आत्मा दर्शन, वीर्य और आनन्द से परिपूर्ण ज्ञानमय तत्त्व है। वस्तुतः ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्यादि, गुण आत्मा के ऐसे अनेक शाश्वत स्वभाव हैं जो परस्पर एक दूसरे की विशेषता होते हुए, एक दूसरे में विद्यमान होते हुए एक अस्तित्व से रचित हैं, एक सत्ता है। आचार्य देवसेन के शब्दों में ज्ञान, दर्शनादि अनेक गुण ही स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा परस्पर एक दूसरे का स्वभाव होते हैं और इसलिए ये अनेक गुण ही आत्मा नामक एक द्रव्य है। आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणों में इस तात्त्विक अभेद के होने पर भी इनमें नयात्मक बुद्धि से भेद स्थापित किया जाता है तथा आत्मा और उसके ज्ञान, दर्शनादि विभिन्न गुणों को पृथक्-पृथक् नाम और लक्षण दिये जाते है। ___ जैन-दर्शन के इस भेदाभेद सम्बन्ध के सिद्धान्त को समझने के लिए हम पहले ज्ञान का क्रमश: दर्शन, वीर्य और सुख से और उसके बाद आत्मा से भेदाभेद सम्बन्ध को समझने का प्रयास करेंगे। दर्शन और ज्ञान का भेदाभेद सम्बन्ध जैन-दर्शन के अनुसार समस्त ज्ञान साक्षात् या परम्परा से दर्शनपूर्वक होता है। दर्शन शब्द का अर्थ है देखना, अवलोकन, अवभास (महसूस करना)। किसी पदार्थ के साक्षात्कारपूर्वक होने वाली संवेदनात्मक अनुभूति को दर्शन कहा जाता है। यह दर्शन दृष्य पदार्थ और दृष्टा आत्मा की पृथक्-पृथक् अनुभूति न होकर एक अखण्ड दृश्यानुभूति स्वरूप होता है इसलिए इसे निराकार या निर्विकल्पक अनुभूति तथा अन्तर्चित प्रकाश कहा जाता है। जैसे - त्वचा से अग्नि का संयोग होने पर दृष्टा-चेतना आत्मा और दृश्य-उष्ण पदार्थ की पृथक्-पृथक् अनुभूति नहीं होती अपितु एक अखण्ड दृश्यानभूति - उष्णानभूति को महसूस किया जाता है। यह महसूस करने की प्रक्रिया सामान्य विशेषात्मक पदार्थ के यथावस्थित स्वरूप का ऐसा ग्रहण है जो अपने आप में वर्णनातीत है, नाम जाति आदि विकल्पों से रहित है तथा कर्ता कर्म के द्वैत से भी रहित है। इसके विपरीत ज्ञान पदार्थ की कर्ता कर्म भाव से यक्त साकार या सविकल्पक चेतना है। ज्ञान का आकार "मैं उष्ण पदार्थ को जान रहा हूँ" रूप निश्चयात्मक बुद्धि स्वरूप होता है। इसमें मैं-ज्ञाता, उष्ण पदार्थ- ज्ञेय और जान रहा हूँ ज्ञान तीनों अपने-अपने विशिष्ट स्वरूप में ज्ञात होते हैं। ज्ञान कर्ता और कर्म के द्वैत से युक्त होने के कारण बहिर्चित प्रकाश कहलाता है। ज्ञान और दर्शन में यह शाब्दिक और लाक्षणिक भेद होने पर भी ये पृथक्-पृथक् तत्त्व न -188