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________________ जैनदर्शन में षड्द्रव्य और उनका अर्थक्रियाकारित्व - डॉ. धर्मचन्द जैन, जोधपुर जैनदर्शन का यह मन्तव्य है कि एकान्त नित्य एवं एकान्त क्षणिक पदार्थों में न क्रम से अर्थक्रिया सम्भव है और न ही युगपद्। भट्ट अकलङ्क कहते हैं अर्थक्रिया न युज्येत नित्य क्षणिकपक्षयोः। क्रमाक्रमाभ्यां भावानां सा लक्षणतया मता।। (लघीयस्त्रय, 8) जैन दर्शनानुसार उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक किं वा नित्यानित्यात्मक पदार्थ में ही अर्थक्रिया सम्भव है। जैनदर्शन में षड्द्रव्य प्रतिपादित हैं- 1. जीवास्तिकाय, 2. पुद्गलास्तिकाय, 3. धर्मास्तिकाय, 4. अधर्मास्तिकाय, 5. आकाशास्तिकाय और 6. काल। ये छहों द्रव्य गुण एवं पर्यायों से युक्त होते हैं- गुणपर्यायवद् द्रव्यम्। (तत्त्वार्थसूत्र, 5.37) / ये सभी द्रव्य उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, नित्यानित्यात्मक, सामान्यविशेषात्मक एवं भेदाभेदात्मक होते, इसलिए इनमें अर्थक्रिया घटित होती है। एकान्त नित्य पदार्थ में क्रम से अर्थक्रिया स्वीकार करने पर वह अनित्य सिद्ध होता है तथा युगपद् अर्थक्रिया मानने पर दूसरे ही क्षण उसका स्वभावभेद मानना होगा, जो पुनः उसे अनित्य सिद्ध करता है। क्षणिक पदार्थ के एक ही क्षण रहने के कारण उसमें क्रम नहीं बन सकता तथा युगपद् अर्थक्रिया मानने पर उसमें नानास्वभाव अङ्गीकार करना होगा, जिससे उसकी क्षणिकता दूषित होती है। इसलिए नित्यानित्यात्मक पदार्थ में ही अर्थक्रिया का होना युक्तिसंगत है। धर्मास्तिकायादि षड्द्रव्यों का उपग्रह/कार्य ही उनकी अर्थक्रिया है। धर्मास्तिकाय जीवों के आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति में निमित्त बनता है। यह पुद्गल की गति में भी सहायक होता है। यही धर्मास्तिकाय की अर्थक्रिया है। यह अर्थक्रिया धर्मास्तिकाय में सदैव घटित होती रहती है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय द्रव्य जीव एवं अजीव की स्थिरता में उदासीन निमित्त के रूप में अर्थक्रियावान् होता है। जीव एवं अजीव द्रव्यों को अवकाश देने का कार्य आकाशास्तिकाय का है। धर्मास्तिकायादि द्रव्यों के वर्तन में निमित्त बनना कालद्रव्य की अर्थक्रिया है। यह कालद्रव्य परिणाम, क्रिया, परत्व एवं अपरत्व में भी सहायक होता है। पुद्गलद्रव्य जीवों के शरीर, वाणी, मन, प्राण, सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि में सहायक बनकर अर्थक्रियाकारी होता है। जीव एक-दूसरे का उपग्रह करने से अर्थक्रियावान् होते हैं। जीव में ज्ञान, दर्शन, वीर्य आदि गुण भी होते हैं, जो जीव के अर्थक्रियाकारित्व की व्याख्या करते हैं। -187
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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