________________ 'पूर्व' नामक भेद के चतुर्दश भेद हैं जिनमें बारहवां पूर्व प्राणावाय' कहलाता है। इस प्राणावाय पूर्व के अन्तर्गत अष्टाङ्ग युत् सम्पूर्ण आयुर्वेद वर्णित है। आयुर्वेद के आठ अंग हैं- शालाक्य, कायचिकित्सा, भूततन्त्र या भूतविद्या, शल्यतन्त्र, अगदतन्त्र, रसायनतन्त्र, बालरक्षा (कौमारभृत्य) और बीजवर्धन (वाजीकरणतन्त्र)। 'कल्याणकारक' ग्रन्थ में प्राप्त उल्लेख से स्पष्टत: ज्ञात होता है कि मध्य युग से पूर्व के दो मनीषि आचार्यों श्री समन्तभद्र स्वामी (द्वितीय शताब्दी) और श्री पूज्यपाद स्वामी (चतुर्थ शताब्दी) के द्वारा आयुर्वेद के ग्रन्थों की रचना की गयी थी। श्री उग्रादित्याचार्य ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है कि श्री समन्तभद्र स्वामी ने अष्टङ्ग से परिपूर्ण जिस आयुर्वेद के ग्रन्थ की रचना की थी उसके आधार पर ही उन्होंने प्रस्तुत 'कल्याणकारक' ग्रन्थ की रचना की है। ‘कल्याणकारक' का हिन्दी-भाषा में अनुवाद कर उसे प्रकाशित कराने वाले श्री पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ने स्वयं उस ग्रन्थ का अवलोकन किया है। इसका उल्लेख उन्होंने 'कल्याणकारक' की प्रस्तावना में किया है तथा श्री समन्तभद्र स्वामी द्वारा रचित ग्रन्थ 'सिद्धान्त रसायन कल्प' के कुछ श्लोक भी उद्धृत किये हैं। इसी प्रकार पूज्यपाद स्वामी द्वारा भी आयुर्वेद-सम्बन्धी सर्वाङ्गपूर्ण ग्रन्थ की रचना किये जाने के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध होते हैं। कल्याणकारक में भी उनके द्वारा आयुर्वेद के सर्वाङ्गपूर्ण ग्रन्थ की रचना किये जाने का उल्लेख मिलता है। कन्नड़-भाषा एवं संस्कृति के मनीषि जैनाचार्य जगद्वल सोमनाथ ने स्वयं इस तथ्य की पुष्टि की है कि उन्होंने पूज्यपाद स्वामी द्वारा लिखित 'कल्याणकारक' ग्रन्थ का कन्नड़-भाषा में अनुवाद एवं लिप्यन्तरण किया है। इससे पूज्यपाद स्वामी द्वारा लिखित 'कल्याणकारक' ग्रन्थ का महत्त्व स्वत: स्पष्ट है। इस ग्रन्थ में पीठिका प्रकरण, परिभाषा प्रकरण, षोडश ज्वर चिकित्सा निरूपण प्रकरण आदि का प्रतिपादन विस्तारपूर्वक किया गया है। कन्नड़-भाषा के प्राचीन वैद्यक ग्रन्थों में यह ग्रन्थ सर्वाधिक प्राचीन एवं व्यवस्थित है। इसके अनन्तर मध्य युग में केवल श्री उग्रादित्य द्वारा रचित 'कल्याणकारक' ग्रन्थ ही प्राप्त होता है जो सर्वाङ्गपूर्ण (अष्टङ्गयुक्त) एवं व्यवस्थित माना जाता है। यह मुद्रित एवं प्रकाशित हो जाने से प्राणावाय (जैनायुर्वेद) सम्बन्धी प्रामाणिक जानकारी सुलभ हो सकी है। इसके अतिरिक्त किसी अन्य सर्वाङ्गपूर्ण आयुर्वेद के ग्रन्थ की रचना का संकेत नहीं मिलने से यह स्पष्ट हो गया है कि मध्य युग में प्राणावाय-परम्परा का ह्रास होता गया और कालान्तर में उसका लोप भी हो गया। यद्यपि इस परम्परा के लुप्त हो जाने के अनेक कारण हो सकते हैं, तथापि कोई एक निश्चित कारण बतला पाना सम्भव नहीं है। इस विषय में जो सन्दर्भ प्राप्त हुए हैं उनसे ज्ञात होता है कि अनेक जैन मनीषियों ने प्राणावाय (जैनायुर्वेद) आधारित ग्रन्थों की रचना की थी जिनमें से अधिकांश उपलब्ध नहीं हैं और जो उपलब्ध हैं वे भी अपने उद्धार की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सम्भव है वे भी प्रतीक्षा करते-करते काल-कवलित न हो जावें। श्री समन्तभद्र स्वामी एवं श्री पूज्यपाद स्वामीद्वारा रचित आयुर्वेद के ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं, यह हमारे लिए दुःखद स्थिति है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में फिर भी ईसा की आठवीं शताब्दी तक प्राणावाय पर आधारित ग्रन्थों की रचना किये जाने के संकेत प्राप्त होते हैं; किन्तु उत्तर भारत में तो प्राणावाय से सम्बन्धित किसी ग्रन्थ की रचना किये जाने की सूचना प्राप्त नहीं हुई है। इससे ऐसा प्रतीत होता -17