________________ आयुर्वेद के विकास में जैन मनीषियों का योगदान - आचार्य राजकुमार जैन, इटारसी यह सुविदित है कि जैन मनीषियों, मुनिप्रवरों एवं आचार्यों ने धर्म-दर्शन-अध्यात्म-साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने ज्ञान गाम्भीर्य और वैदूष्य के द्वारा भारतीय संस्कृति एवं श्रमण-संस्कृति के स्वरूप को तो विकसित किया ही है, मानवमात्र के लिए कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त किया है। उन्होंने आत्महित चिन्तनपर्वक लोक की भावना से जो साहित्य सृजन किया है उसमें उनकी अद्वितीय प्रतिभा की सुस्पष्ट झलक मिलती है। अभी तक विभिन्न विषयों पर जैन मनीषियों द्वारा रचित जो ग्रन्थ प्रकाशित किये गये हैं वह उनके द्वारा रचित विशाल साहित्य का अंशमात्र ही है। अभी भी ऐसे अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं जो विभिन्न मन्दिरों के शास्त्र भण्डारों में रखे हुए हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे भी अनेक ग्रन्थ हैं जिनका उल्लेख या सन्दर्भ आचार्यों द्वारा रचित अन्यान्य कृतियों, ग्रन्थों में तो मिलता है; किन्तु वे अभी उपलब्ध नहीं होते। समग्र जैन वाङ्मय का परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि बहुमुखी प्रतिभा, प्रकाण्ड पाण्डित्य और विलक्षण बुद्धि वैभव के धनी जैन मनीषि केवल एक विषय के ही अधिकारी नहीं थे, अपितु विभिन्न विषयों में उनकी साधिकार गति- प्रवृत्ति थी। यही कारण है कि एकाधिक विषयों पर उनके द्वारा रचित ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त होती है। जैन मनीषियों को यद्यपि मलत: अध्यात्म विद्या ही अभीष्ट रही है. तथापि धर्म दर्शन. न्याय तथा विभिन्न लौकिक विषय भी उनकी ज्ञान परिधि में व्याप्त रहे हैं। यही कारण है कि जिस प्रकार उन्होंने उक्त विषयों को अधिकृत कर विविध उत्कृष्टतम ग्रन्थों की रचना की उसी प्रकार उन्होंने व्याकरण, कोश, काव्य, छन्द, अलंकार, नीतिशास्त्र, आचारशास्त्र, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि विषयों पर भी साधिकार लेखनी चला कर विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन किया और अपने ज्ञान, वैदुष्य एवं विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया। यहाँ यह कहना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जैन मनीषियों, आचार्यों एवं विद्वत्प्रवरों द्वारा अन्य विषयों की भाँति आयर्वेद को भी अधिकृत कर अनेक ग्रन्थों की रचना की गयी। किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आयुर्वेद साहित्य का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि जैन आयुर्वेद की अद्यावधिक विकास यात्रा में जो अनेक उतार-चढ़ाव रूपात्मक परिवर्तन आये हैं उनके परिणामस्वरूप अधिकांश ग्रन्थ कालकवलित होकर लुप्त हो गये हैं। वर्तमान हमारे समक्ष जैनायर्वेद-परम्परा का एकमात्र प्रतिनिधि ग्रन्थ "कल्याणकारक" है जिसकी रचना आठवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में दिगम्बराचार्य श्रीमद् उग्रादित्य ने की थी। इस ग्रन्थ में श्री उग्रादित्याचार्य ने उन जैन मनीषियों और उनके द्वारा रचित ग्रन्थों का उल्लेख किया है जो उनके काल में विद्यमान रहे हैं; (किन्तु वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं।) कल्याणकारक ग्रन्थ के पूर्व का या उसके बाद का कोई ऐसा प्रामाणिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है जिससे जैनायुर्वेद-सम्बन्धी प्रामाणिक आधिकारिक जानकारी प्राप्त हो सके। अत: यह स्पष्ट है कि जैनायुर्वेद की प्राचीन- परम्परा मध्य युग से पूर्व ही लुप्त हो चुकी थी। जैनधर्म अथवा जिनागम-परम्परा में आयुर्वेद को लौकिक विद्या के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे 'प्राणावाय' संज्ञा से व्यवहृत किया गया है। द्वादशांग रूप जिनागम के बारहवें दृष्टिवादांग के पांच भेदों में से -178 .