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________________ भट्टारक-परम्परा का अवदान - डॉ. सुरेशचन्द जैन, नई दिल्ली श्रमण-परम्परा के २४वें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के पश्चात् जैन-परम्परा के संरक्षण, संवर्धन का कार्य आचार्यों द्वारा ही हुआ है। आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्द तक 20 आचार्य हुए। क्रमश: सातवीं शताब्दी में आचार्य धरसेन श्रत संरक्षा के निमित्त पष्पदन्त भतबलि जैसे सयोग्य मेधावी यतियों को श्रत पारङ्गत बनाकर षटखण्डागम जैसे गूढ़ महनीय ग्रन्थ का प्रणयन करने में महती भूमिका निभायी। आठवीं शताब्दी (ईसा की प्रथम शताब्दी) में आचार्य कुन्दकुन्द इतने प्रभावी आचार्य हुए कि उनके नाम से मूल दिगम्बर आम्नाय चल पड़ी और कालान्तर में उनकी प्रशस्ति में निम्नलिखित मङ्गलाचरण प्रचलित हुआ। मंगलं भगवान्वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैन धर्मोऽस्तु मंगलम्।। यह मङ्गलाचरण आज श्रावकों की सभी धार्मिक क्रियाओं में सर्वप्रथम उच्चारित किया जाता है। गौतम गणधर से लेकर आचार्य कुन्दकुन्द तक की परम्परा में हुए ओजस्वी तपःपूत आचार्यों को समेकित रूप में स्मरण किया गया है। क्रमश: देश की राजनीतिक स्थिति बदली और राजनीतिक दृष्टि से अपरिहार्य एकता खण्डित होने लगी। सम्राट हर्षवर्धन के पश्चात् जब देश तितर-वितर होने लगा और अनेकता ने सिर उठाया। ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही मुस्लिम शासकों का आक्रमण देश पर होने लगे तथा १३वीं शताब्दी के आते-आते मुस्लिक शासकों का राज्य हो गया। साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के कारण मुस्लिमीकरण के साथ-साथ मूर्तियों को भग्न किया गया। क्रूरता और बर्बरता की सभी सीमाएँ टूट गयीं। ऐसे भयावह वातावरण में अहिंसक वृत्तिधारी समाज का जीना दूभर हो गया। दिगम्बर साधुओं का निरापद विहार बाधित होने लगा। परिणामस्वरूप न तो मन्दिर सुरक्षित रहे और न ही दिगम्बर-परम्परा के जीवन्त प्रतीक दिगम्बर साधु। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण घटना का उल्लेख करना आवश्यक है, क्योंकि इसी घटना में भट्टारक-परम्परा के बीज दिखायी पड़ते हैं दिल्ली की गद्दी पर अलाउद्दीन खिलजी आसीन था। तत्कालीन दिल्ली के नगरसेठ श्री पूर्णचन्द्र अग्रवाल जैन थे जो राज्य की अर्थव्यवस्था के एकमात्र सक्षम अधिकारी थे। अलाउद्दीन खिलजी को आचार्य माधवसेन को दिल्ली बुलाने का आग्रह किया। दिगम्बर-परम्परा का निर्वाह करते हुए आचार्य माधवसेन पद विहार करते हुए दिल्ली आए और राधा और चेतन को हराकर जैनधर्म की प्रभावना की। अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में ही नन्दिसंघ के आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपने संघ की स्थापना की और उत्तर भारत में भट्टारक-परम्परा को सुव्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। -155
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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