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________________ भट्टारक-परम्परा ने धीरे-धीरे अपना आकार ग्रहण किया और भट्टारक प्रभाचन्द के पश्चात् क्रमश: अन्य प्रान्तों में भट्टारक गद्दियों की स्थापना की। राजस्थान में चित्तौड़, चाकसू, आमेर, सांगानेर, जयपुर, श्री महावीरजी, अजमेर एवं नागौर, मध्य प्रान्त में ग्वालियर और सोनागिर, बागड़ प्रदेश में डूंगरपुर, सागवाड़ा, बांसवाड़ा, गुजरात में नवसारी, सूरत, खम्भात, धोधा, सौराष्ट्र में गिरनार, महाराष्ट्र में कारंजा, नागपुर, कोल्हापुर, दक्षिण भारत में कर्नाटक, तमिल आदि प्रदेशों में भट्टारकों की गद्दियाँ स्थापित हुईं। साहित्य सपर्या की दृष्टि से भट्टारक-परम्परा का अवदान स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य तथा जैन-परम्परा के विकास का स्वर्णिम अध्याय है। साहित्य निर्माण के साथ-साथ इन भट्टारकों ने भारत के अनेक प्रान्तों में मन्दिरों के निर्माण-प्रतिष्ठा समारोहों का आयोजन करके श्रमण संस्कृति की सुरक्षा में महनीय योगदान दिया है जो ऐतिहासिक और श्रमण-परम्परा के लिए गौरव की वस्तु है। भट्टारक-परम्परा ने श्रमण-परम्परा की सुरक्षा, संरक्षण और पल्लवन में पूर्ण योगदान दिया। यही कारण है कि आज भी शान्तिधारा में अर्हन्त को परमभट्टारक प्रसादात् ...... के रूप में स्मरण करते हैं। जगत् की स्थिति बड़ी विचित्र है। देश, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार विरोध और समर्थन जुटता भी है तो बिखरता भी है। विसंगतियाँ होना कोई अनहोनी घटना नहीं। प्रत्येक घटना में अच्छाई और बुराई देखी जा सकती है। दृष्टि का अन्तर है। अनेकान्त का तकाजा है कि जो जैसी स्थिति में है उसे समन्वयात्मक दृष्टि से संरक्षण मिले और उसमें आयी विसंगति में सुधार हो। अनेक विसंगतियों, विचारधाराओं के बावजूद यदि यह परम्परा जीवन्त है तो सब मूल स्वरूप के कारण जो पहले भी कोई समाप्त नहीं कर सका तो आगे भी समाप्त करने में सफल नहीं होगा। गति चाहे वह समाज की हो, धर्म की हो अथवा संस्कृति की हो। गतिशीलता बनी रहनी चाहिए। भट्टारक-परम्परा अब भी गतिशील है और जब तक उसमें गतिशीलता बनी रहेगी तब तक वह जीवन्त रहेगी। -156
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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