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________________ दिगम्बर-परम्परा भद्रबाहु का कार्यकाल 29 वर्ष मानती है और उनका निर्वाण महावीर निर्वाण के 162 वर्ष बाद स्वीकार करती है पर श्वेताम्बर-परम्परानुसार यह समय 170 वर्ष बाद बताया जाता है और उनका कार्यकाल कल चौदह वर्ष माना जाता है। जो भी हो, दोनों परम्पराओं के बीच आठ वर्ष का अन्तराल कोई बहुत अधिक नहीं है। परम्परानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु निमित्तज्ञानी थे। उनके ही समय संघभेद प्रारम्भ हुआ है। अपने निमित्तज्ञान के बल पर उत्तर में होने वाले द्वादश वर्षीय दुष्काल का आगमन जानकार भद्रबाहु ने बारह हजार मुनि-संघ के साथ दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। चन्द्रगुप्त मौर्य भी उनके साथ थे। किस मार्ग से वे श्रवणबेलगोल पहुंचे, यह पता नहीं। अपना अन्त निकट जानकर उन्होंने संघ को चोल, पाण्ड्य प्रदेशों की ओर जाने का आदेश दिया और स्वयं श्रवणबेलगोल में ही कालवप्र नामक पहाड़ी पर समाधि-मरणपूर्वक देह त्याग किया। इस आशय की छठी शती का एक लेख पुनाड के उत्तरी भाग में स्थित चन्द्रगिरि पहाड़ी पर उपलब्ध हुआ है। उसके सामने विन्ध्यगिरि पर चामुण्डराय द्वारा स्थापित गोम्मटेश्वर बाहुबली की 57 फीट ऊंची एक भव्य मूर्ति स्थित है। परिशिष्ट पर्वन् के अनुसार भद्रबाहु दुष्काल समाप्त होने के बाद दक्षिण से मगध वापिस हुए और पश्चात् महाप्राण ध्यान करने नेपाल चले गये। इसी बीच जैन साधु-संघ ने अनभ्यासवश विस्मृत श्रुत को किसी प्रकार से स्थूलभद्र के नेतृत्व में एकादश अंगों का संकलन किया और अवशिष्ट द्वादशवें अंग दृष्टिवाद के संकलन के लिए नेपाल में अवस्थित भद्रबाहु के पास अपने कुछ शिष्यों को भेजा। उनमें स्थूलभद्र ही वहाँ कुछ समय रुक सके जिन्होंने उसका कुछ यथाशक्य अध्ययन किया। फिर भी दृष्टिवाद का संकलन अवशिष्ट ही रह गया। आचार्य भद्रबाहु के जीवनकाल में घटित इस घटना ने दिगम्बर और श्वेताम्बर-परम्पराओं में कितनी रूप लिए हैं यह देवसेन के भावसंग्रह भ. रत्ननन्दि का भद्रबाहुचरित्र, हरिषेण का वृहत्कथाकोश, रामचन्द्र मुमुक्षु का पुण्याश्रव कथाकोश, श्रीचन्द्रकृत कहकोसु, रइधू का भद्रबाहुचरित, नेमिदत्त की भद्रबाहुकथा तथा श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में उल्लिखित दिगम्बर-परम्परा में देखा जा सकता है। इसी तरह श्वेताम्बर-परम्परा के तित्थोगाली पइण्णा, गच्छाचार पइन्ना, परिशिष्ट पर्वन्, प्रबन्धचिन्तामणि, प्रबन्धकोश आदि ग्रन्थों में भी श्रुतकेवली भद्रबाहु का कथानक मिलता है। इस आलेख में इन सभी ग्रन्थों की सयुक्तिक चर्चा करते हुए भद्रबाहुसंहिता, छेदसूत्र और नियुक्तियों के कर्तृत्व की मीमांसा की गयी है और यह स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द के साक्षात गुरू भद्रबाहु द्वितीय ही छेदसूत्र और नियुक्तिकार होना चाहिए, श्रुतकेवली भद्रबाहु नहीं। श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा रचित कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं पर अप्रत्यक्ष रूप में श्रुत के संवर्धन में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। -12-4 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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