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________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु का जैन-संस्कृति के संरक्षण में योगदान - डॉ. कल्पना जैन, नई दिल्ली दिगम्बर पट्टावलियों और प्रशस्तियों से अवगत होता है कि श्रुत को सुनकर कण्ठस्थ कर लेने की परम्परा तीर्थङ्कर महावीर के निर्वाण लाभ के पश्चात् कई शतक तक चलती रही। द्रव्य, गुण, पर्याय, तत्त्वज्ञान, कर्म-सिद्धान्त एवं आचार-सम्बन्धी मौलिक मान्यताओं को परम्परा से प्राप्त कर स्मरण बनाये रखने की प्रथा धारावाहिक रूप में चलती रही। नन्दिसंघ, बलात्कार गण, सरस्वती गच्छ की पट्टावलियों में बताया है कि गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामी ने 62 वर्षों तक धर्म प्रचार किया। महावीर स्वामी के पश्चात् 12 वर्षों तक गौतम स्वामी ने केवली पद प्राप्त कर धर्म प्रचार किया। फिर 12 वर्षों तक सुधर्माचार्य केवली रहे। अनन्तर जम्बू स्वामी अड़तीस वर्षों तक केवली रहे। इस प्रकार 62 वर्षों तक इन तीनों केवलियों की ज्ञान ज्योति प्रकाशित होती रही। तत्पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए। चौदह वर्षों तक विष्णु ने, सोलह वर्षों तक नन्दिमित्र ने, बाईस वर्षों तक अपराजित ने, उन्नीस वर्षों तक गोवर्द्धनाचार्य ने और उन्तीस वर्षों तक भद्रबाहु ने ज्ञानदीप जला रखा। सुयकेवलि पंच जणा बासाहि, वासे गये सुसंजाया। पढ़मं चउदह वासू विष्णुकुमारं मंणेयव्वं।। नंदिमित्र वास सोलह किय अपराजिय वास वावीसं। इय-हीन वावीसं गोवर्द्धन भद्रवाहुगुणबीसं।। श्रुतकेवली भद्रबाहु के गुरु का नाम गोवर्द्धनाचार्य है। ये ही दिगम्बर मुनियों का संघ लेकर दक्षिण की ओर गये थे और इन्हीं के शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य थे। तिलोयपण्णत्ति में बताया गया है कि मुकुटधर राजाओं में अन्तिम राजा चन्द्रगुप्त ने जिन-दीक्षा ग्रहण की थी। इसके पश्चात् अन्य कोई मुकुटधर दीक्षित नहीं हुआ। (4/481) मउडधरेसं चरिमो जिणदिक्खं धारिदं चंदगुत्तो या तत्तो मउडधरा दुष्पव्वज्जं णेव रोण्हाति।। आचार्य भद्रबाहु समूचे जैनसंघ के नायक थे। देशभर में फैला हुआ विशाल जैन साधु समुदाय प्रत्यक्ष या चक्र से बचाकर, निर्दोष रूप में प्रवर्तमान रखने का उत्तरदायित्व उस समय भद्रबाहु पर ही था। पूरे भारत की भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियाँ उनकी दृष्टि में थी। वर्तमान समस्या के प्रति चिन्तित होते हुए भी भविष्य को वे भलीभाँति जान रहे थे। सारी परिस्थितियों पर विचार करके उन विवेकवान् आचार्य ने उत्तरापथ के समूचे साधु सन्तों को एकसूत्र में बाँधा। श्रुतकेवली भद्रबाहु का जैन-संस्कृति के संरक्षण में जो योगदान है, वह नहीं होता तो आज जैन-संस्कृति का अस्तित्व ही शेष नहीं होता। आचार्य केवली भद्रबाहु में सबसे अधिक प्रभावित करने वाला गुण संरक्षक के रूप में यही था कि वे अपने शिष्यों से जो चाहते थे उसे उन्होंने पहले अपने अन्दर उतारा। एक सफल गुरु वही है जो पहले स्तयं -130 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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