________________ श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनका श्रुतसंवर्धन में योगदान - प्रोफेसर डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु जैन संस्कृति के ऐसे महास्तम्भ हैं जहाँ से जैन-परम्परा की महानदी ने अनेक घात-प्रत्याघात सहते हुए अपनी धारा को अनेक मार्गों में प्रवाहित किया और संसारियों की तीक्ष्ण पिपासा को शान्त करते हुए उनका मार्ग प्रशस्त किया। वे ही ऐसे प्राचीनतम आचार्य है जिन्हें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएं समान रूप से स्वीकार करती है। पर उनका व्यक्तित्व दोनों परम्पराओं में दो दिशाओं में विकसित हुआहै। दिगम्बर-परम्परा में भद्रबाहु नाम के दो विशेष व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है प्रथम- श्रुतकेवली भद्रबाहु और द्वितीय- कुन्दकुन्द के साक्षात् गुरु। श्वेताम्बर-परम्परा में तीन भद्रबाहु माने जाते हैं- प्रथम श्रुतकेवली भद्रबाहु, 2- द्वितीय छेदसूत्रकर्ता भद्रबाहु और तृतीय नियुक्तिकर्ता भद्रबाहु। कुछ और भी भद्रबाहुओं की नामावली इतिहास और परम्परा में उत्तरकाल में मिलने लगती है। यहाँ हम इन तीन भद्रबाहुओं परचर्चा करेंगे और देखेंगे कि भद्रबाहु, चन्द्रगुप्त चाणक्य, कुन्दकुन्द आदि आचार्यों से सम्बद्ध घटनाएं किस तरह परस्पर गुथी हुई हैं। जब तक उन सभी पर वस्तुत: सयुक्तिक विचार नहीं किया जाये तब तक किसी को भी यथार्थ रूप से समझा नहीं जा सकता। श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद पट्टावलियों और ग्रन्थकारों द्वारा प्रस्तुत तीनों भद्रबाहु के उल्लेखों ने शोधकों को दिग्भ्रमित कर दिया है और लेखकों ने उनकी जीवन घटनाओं में अनेक नये-नये तत्त्वों को जोड़कर उनका मूल व्यक्तित्व और भी पेंचीदा कर दिया है। आचार्य कालगणना तिलोयपण्णत्ति (4.1476-84), जयधवला (भाग-१, पृ. 85), धवला (पु. 1, पृ. 66), हरिवंशपुराण (66.22), इन्द्रनन्दी श्रुतावतार पद्य (72-78) आदि दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थों में तीन केवलियों का कुल काल महावीर निर्वाण के बाद 62 वर्ष और पांच श्रुतकेवलियों का कुल काल 100 वर्ष 162 वर्ष बताया है जिनमें भद्रबाहु का काल 29 वर्ष माना है। श्वेताम्बर-परम्परा की स्थविरावली 162 वर्ष के स्थान पर 215 वर्ष की गणना करती है जिसमें भद्रबाहु का काल 14 वर्ष माना गया है। परिशिष्टपर्वन् के अनुसार इसमें पालक के 60 वर्ष भूल से चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में जोड़ दिये गये। उन्हें यदि घटा दिये जायें तो यह काल 155 वर्ष (215-60) आता है अर्थात् हेमचन्द्र के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का राज्यकाल महावीर निर्वाण के 155 वर्ष बाद बताया है। इसका तात्पर्य है कि ई.पू. 215 (155 60) वर्ष में चन्द्रगुप्त का राज्याभिषेक हुआ। इससे चन्द्रगुप्त और भद्रबाहु की समकालीनता भी सिद्ध हो जाती है। आचार्य श्रुतकेवली भद्रबाहु (प्रथम) आचार्य कालगणना की दोनों परम्पराओं को देखने से यह स्पष्ट है कि जम्बूस्वामी के बाद होने वाले युगप्रधान आचार्यों में श्रुतकेवली भद्रबाहु ही एक ऐसे निर्विवाद आचार्य हुए हैं, जिनके व्यक्तित्व को दोनों परम्पराओं ने एक स्वर में स्वीकार किया है। बीच में होने वाले प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र और सम्भूतिविजय आचार्यों के विषय में परम्पराएँ एकमत नहीं। भद्रबाहु के विषय में भी जो मतभेद है वह बहुत अधिक नहीं। -198