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________________ श्री गोम्मटेश्वर बाहुबली की मूर्ति और उनका मस्तकाभिषेक - कपूरचन्द पाटनी, गुवाहाटी जिस पावन प्रतिमा ने एक हजार पचीस वसन्त, एक हजार पचीस बरसातें और मध्यकालीन अनेक संघर्ष देखे हैं वह पावन प्रतिमा आचार्य श्री नेमीचन्द्रजी सिद्धान्तचक्रवर्ती के सान्निध्य में सेनापति एवं प्रधान अमात्य श्री चामुण्डराय के द्वारा सन 981 में स्थापित की गयी थी- उस पावन प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक आगामी फरवरी 2006 में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा है। इस 1025 वर्ष के दीर्घकालीन युग ने क्या नहीं प्रस्तुत किया- सब कुछ तो किया, संघर्ष की कमी नहीं रही, एक-दो नहीं अनेक-अनेक आक्रमण और युद्ध हुए– यहाँ तक कि विश्वयुद्ध भी हुए, अनेक नवीन संस्कृतियों ने जन्म लिया- सब कुछ सहन करते हुए महामानव जीवन्त बाहुबली की भांति अदम्य साहस के साथ यह प्रतिमा आज भी आकाश को छूते हुए हम सबके समक्ष खड़ी हुई है और ऐतिहासिकता, पावनता, त्याग एवं वीतरागता का पाठ पढ़ाने वाली यह पाषाण प्रतिमा किसी जीवन्त प्रतिमा से कम नहीं है। जिस प्रकार यह बाहुबली प्रतिमा आज समस्त शिल्पकलाओं में अप्रतिम है उसी प्रकार बाहुबली स्वयं अपने समय में भी तो अप्रतिम ही थे- उनका बल, उनका ध्यान, उनका केवलज्ञान और उनका मोक्षप्रयाण सब कुछ तो अप्रतिम ही था। बाहुबली के पूज्य पिता तीर्थङ्कर वृषभदेव तो बाद में मोक्ष गये, पहले बाहुबली मोक्ष गये। वास्तव में बाहुबली में क्या-क्या गुण थे- इसका वर्णन लिखना शक्य नहीं है। भगवान् बाहुबली ने दीक्षोपरान्त- मोक्ष प्रयाण तक 1 ग्रास भी आहार ग्रहण नहीं किया। लगता है समग्र मानवों की शक्ति मानों एक में ही समाहित होकर महामानव के रूप में प्रगट हो गयी थी। भगवान् आदिनाथ के पुत्र बाहुबली प्रथम कामदेव थे। अद्वितीय सौन्दर्य, बल और पौरुष के धनी थे वे। भगवान् आदिनाथ अपने सभी पुत्रों को अपना-अपना राज्य सम्भला कर साधना व तप में लीन हुए और कैवल्यनिधि को प्राप्त कर चुके थे। तभी बड़े भ्राता भरत को चक्ररत्न की प्राप्ति हो चुकी थी और वे छह खण्ड विजय करने हेतु निकल पड़े थे। बाहुबली ने पूर्ण विनम्रता, आदर व सम्मान सहित भगवान् आदिनाथ से प्राप्त अपने राज्य की रक्षार्थ- भरत का आधिपत्य स्वीकार नहीं किया। परिणामस्वरूप होने वाले युद्ध की विभीषिका तो सुयोग्य मन्त्रियों की मन्त्रणा के फलस्वरूप टल गयी, पर सुनीतिपूर्वक हुए दृष्टि, जल और मल्लयुद्ध में भरत-बाहुबली पर विजय न पा सके, परास्त हो गये। पराजय की क्षुब्धता असह्य और विवेकहीन हो गयी और भरत ने चक्र का प्रहार कर दिया, परन्तु चक्र बाहुबली की प्रदक्षिणा देकर वापस लौट आया। इस घटना से बाहुबली संसार से विरक्त हो गये, राज्य छोड़ कर दिगम्बर मुनि हो गये और घोर तपस्या में लीन हो गये। पर वे भरत की भूमि पर खड़े हैं- मान की इस तनिक सी शल्य के कारण ज्ञान पर से आवरण हट नहीं सका। भरत को भगवान् आदिनाथ से जब इस तथ्य का पता चला तो वे बाहुबली की वन्दना करने आये और निवेदन किया कि किसका राज्य? किसी भूमि? स्वात्म से उसका कैसा सरोकार? बाहुबली को जैसे ही बोध हुआमानकषाय के बन्धन टूट गये और कैवल्य बोध से मुक्ति लक्ष्मी का वरण किया। उन्हीं बाहुबली भगवान् की -116 -
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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