________________ भरत-बाहुबली की मूर्ति का प्रतिमा वैज्ञानिक अध्ययन - नन्दलाल जैन, रीवा प्रस्तुत आलेख में मूर्ति, मूर्ति-निर्माण कला, मरनक मापन तथा प्रतिमा लक्षणों के आधार पर भरत-बाहुबली की मूर्ति का अध्ययन किया गया है। मूर्ति पूजा देवोपासना का एक रूप है। यह अतीत के संरक्षण, अव्यक्त के व्यक्तिकरण, गुणस्मरण-शुभोपयोग, ध्यान-योग सिद्धि एवं भाव-पवित्रता की प्रतीक है। जैनों में मूर्ति-पूजा अतिप्राचीनकाल से है, पर जिन-मूर्तियां ईसा पूर्व कुछ सदियों से ही उपलब्ध होती हैं। मूर्ति पूर्णावयवी होनी चाहिए। इसके निर्माण में 16 द्रव्य काम आते है, पर जैन मूर्तियां पाषाण धातु या रत्नों से ही बनायी जाती है। प्रत्येक द्रव्य की प्रतिमा का विशेष फल होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैनों ने हिन्दुओं की अनेक मान्यताओं के समान प्रतिमाविज्ञान के मानव आकृति के आधार पर विकसित (मानव ही तो देव या जिन बनता है) मानक मान भी मत्स्यपुराण से लिए हैं। यह प्रतिमा के चारों रूप एवं छ: अंगों से परिपूर्ण रूप से निर्मित हुए है। मूर्ति प्रायः१०८-१२० अंगुल या 9-10 ताल की होती है। यह देखा गया है कि मूर्ति की ऊंचाई किसी भी यूनिट में तो, उसके अंगोपांगों का अनुपात प्राय: स्थिर रहता है। भरत-बाहुबली की खड्गासन प्रतिमा के चित्र तथा वास्तविक मूर्ति के साथ मानक मान तथा कुछ अन्य प्रतिमाओं के मानों के तुलनात्मक आंकड़ों एवं निष्कर्षों को सारणीबद्ध कर यह बताया गया है कि भरत-बाहुबली की प्रतिमा में मानक माप-मान की यथार्थता 90-95 प्रतिशत तथा प्रतिमालक्षण शत-प्रतिशत रूप में पाये जाते है। फलत: यह प्रतिमा प्रतिमा-वैज्ञानिक दृष्टि से पूजनीय एवं वन्दनीय है। आलेख में प्रसंगोपात्र अनेक विषय भी समाहित किये गये है। -115--