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________________ आचार्य नेमिचन्द्र-सिद्धान्त चक्रवर्ती और गोम्मटेश्वर की प्रतिमा - निर्मल जैन, सतना आचार्य नेमिचन्द्र-सिद्धान्त चक्रवर्ती आर्ष-परम्परा के उन जाज्वल्यमान नक्षत्रों में से थे जिन्होंने साधना की उत्कृष्टता के साथ ही भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि द्वारा निःसृत जैनदर्शन के कल्याणकारी गूढ़ सिद्धान्तों को सहज सरल भाषा में लिपिबद्ध करके श्रुत सम्पदा को अक्षय सम्पन्नता प्रदान की। जिनवाणी के चार अनुयोगों में करणानुयोग अत्यन्त जटिल विषय माना जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र महाराज ने इसी अनुयोग को विशेष रूप से चिन्तन का विषय बनाकर उस पर अपनी लेखनी चलायी। करणानुयोग में कर्म-सिद्धान्त और तीन लोक विवेचन दोनों सन्दर्भो में आचार्य महाराज ने शास्त्र सृजन किये। उनके द्वारा रचित गोम्मटसार (कर्मकाण्ड-जीवकाण्ड), लब्धिसार और क्षपणासार में कर्म प्रकृतियों का सूक्ष्म विवेचन हुआ है तथा त्रिलोकसार में उन्होंने जैन गणित के आधार पर तीनों लोकों की विशद व्याख्या की है। श्रुत सम्पदा के संवर्धन में उनका यह उपकार चिरकाल तक आत्मार्थियों के लिए प्रेरणा स्रोत रहेगा। गंग राज्यवंश की तीन पीढ़ियों तक राज्य के प्रधानमन्त्री और सेनापति जैसे उत्तरदायित्वपूर्ण पदों का एक साथ निर्वहन करने वाले परमवीर चामुण्डराय ने आचार्य नेमिचन्द्र के चरणों में बैठकर ज्ञानार्जन किया, कन्नड़ और संस्कृत में शास्त्रों की रचना की। श्रद्धावान् श्रावक तो वे पहले से ही थे। उन्होंने अपनी माता काललदेवी की इच्छा पूर्ति के लिए आचार्य नेमिचन्द्र-सिद्धान्त चक्रवर्ती की प्रेरणा और आशीर्वाद से श्रवणबेलगोल के विन्ध्यगिरि पर्वत पर भगवान् बाहुबली की सत्तावन फुट उत्तुंग लोकोत्तर प्रतिमा की स्थापना करायी। चामुण्डराय के एक नाम गोमट के कारण गोमटेश नाम से विख्यात एक हजार पच्चीस वर्ष पूर्व स्थापित प्रथम कामदेव बाहुबली की मूर्ति अपनी नयनाभिराम सुन्दरता, विशाल देहयष्टि, मनमोहक भावभंगिमा एवं वीतराग निर्निमेष दृष्टि जैसे अनेक कारणों से दर्शकों को इस प्रकार आकर्षित करती है कि सब ठगे से निहारते ही रहते हैं। इस जीवन्त प्रतिमा की कीर्ति चतुर्दिक व्याप्त है। देश-विदेश से आकर श्रद्धालु श्रावक ही नहीं सामान्य दर्शक भी मन्त्रमुग्ध होकर दर्शन करते हैं। अनेक अतिशय भी इस प्रतिमा के साथ जुड़े हैं। मूर्ति की छाया नहीं पड़ती, उस पर पक्षी नहीं बैठते, हजार वर्ष बीत जाने पर भी उसकी चमक कम नहीं होती। मूर्ति चामुण्डराय द्वारा निर्मापित है इसका उल्लेख चरणों के आसपास कनड़, तमिल और मराठी में अंकित है। .-115.
SR No.032866
Book TitleJain Vidya Ke Vividh Aayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain
PublisherGommateshwar Bahubali Swami Mahamastakabhishek Mahotsav Samiti
Publication Year2006
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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