________________ भरतेश्वराभ्युदय काव्य, कमलप्रभसूरि का पुण्डरीकचरित (वि.सं. 1372), अज्ञात कविकृत बाहुबलिचरित्र, भट्टारक चन्द्रकीर्ति का वृषभदेवपुराण (वि.सं. 1681) और रत्नाकरवर्णी का भरतेश वैभव (सन् 1551) / इनमें रत्नाकरवर्णी का भरतेश वैभव संस्कृत के गीतगोविन्द से भी उच्चकोटि का काव्य है। कर्नाटक में तो यह लोगों का कण्ठहार बना हुआ है। संगीत की दृष्टि से यह काव्य बेजोड़ है। इनके अतिरिक्त जिनेश्वर सूरि का कथाकोषप्रकरण (ई. 1108), सोमप्रभकृत कुमारपाल प्रतिबोध (1195 ई.), धनेश्वर सूरि का शत्रुञ्जय माहात्म्य (१३-१४वीं शती), पुण्यकुशलगणि का बाहुबली महाकाव्य भी उल्लेखनीय हैं। इनमें से हम भरत बाहुबली महाकाव्य पर आगे विचार कर रहे हैं जिनके अनुवादक मुनि दुलहराज हैं और जो जैन विश्व भारती, लाडनूं राजस्थान से 1974 में प्रकाशित हुआ था। 2. प्राकृत और अपभ्रंश में बाहुबली कथा तीर्थङ्कर ऋषभदेव पर प्राकृत में आदिनाहचरियं, रिसभदेवचरियं जैसे स्वतन्त्र काव्य और चउप्पन्न ही भरत और बाहुबली की कथा का प्रासंगिक रूप से वर्णन हुआ है। इनके अतिरिक्त कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, उत्तराध्ययनसूत्र की टीका जैसे ग्रन्थों में भी बाहुबली के जीवन प्रसंगों का उल्लेख मिलता है पर आश्चर्य का विषय है कि स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रणयन इस कथा पर बहुत कम हुआ है। शुभशीलगणि द्वारा विरचित भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति नामक ग्रन्थ प्राकृत में अवश्य मिलता है जिसमें बाहुबली कथा का वर्णन हुआ है। लगता है, बाहुबली कथा कतिपय विकास के चरणों से गुजरी है। वसुदेवहिण्डी (चौथी शती) में बाहुबली कथा का संक्षिप्त रूप है। पउमचरिय में उनके मान कषाय का कोई उल्लेख नहीं। दीक्षा लेने के बाद ही केवलज्ञान होने का उल्लेख मिलता है (4.38) / इसी तरह जंबुदीवपण्णत्ति में ऋषभ और भरत-बाहुबली के पारिवारिक सम्बन्धों का कोई उल्लेख नहीं। यहाँ तक्षशिला की जगह बहली का राज्य बताया गया है जिसे स्वतन्त्र राज्य के रूप में बाहुबली को ऋषभदेव ने दिया था। यह राज्य तक्षशिला के समीप अवस्थित था। भरतेश्वर– बाहुबली वृत्ति में दोनों के बीच बारह वर्ष का भयंकर युद्ध हुआ बताया है जबकि पउमचरिय (4.43) और आवश्यकचूर्णि (पृ. 210) में अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव बाहुबली ने रखा था ऐसा उल्लेख मिलता है। यह युद्ध कहीं दृष्टियुद्ध और मल्लयुद्ध के रूप में रहा है, कहीं जलयुद्ध को भी जोड़ दिया गया। जिनदासगणि महत्तर ने उसमें वाग्युद्ध भी सम्मिलित कर दिया। कहीं स्वरयुद्ध या दण्डयुद्ध को जोड़कर यह संख्या पांच कर दी। इन युद्धों में भरत की अपेक्षा बाहुबली को अधिक नीतिनिष्ठ के रूप में प्रस्थापित किया गया है। बाहुबली कथा में चक्रप्रहार का मोटिफ एक विशिष्ट स्थान रखता है। वैराग्य के कारणों में यह कारण अन्यत्र दिखायी नहीं देता। इसका उल्लेख लगभग सभी कथाकारों ने किया है। पउमचरिय में उनकी मान कषाय का उल्लेख नहीं है, पर आगे के प्राकृत-ग्रन्थों में यह मिलता है कि बाहुबली ऋषभदेव के पास दीक्षा लेने इसलिए नहीं गये, क्योंकि उन्हें वहाँ पूर्व दीक्षित अपने छोटे भाइयों को नमस्कार करना पड़ता। इस मान कषाय ने उन्हें केवलज्ञान नहीं होने दिया। इसके बाद कुछ ऐसे भी पौराणिक ग्रन्थ है जहाँ 'मैं भरत के राज्य में खड़े होकर तपस्या कर रहा हूँ।" इस प्रकार की मानकषाय केवलज्ञान प्राप्ति में बाधक रही, इसका वर्णन है।