________________ क्षयोपशम भाव चर्चा लगता है कि निश्चय सम्यग्दर्शन को जो गृहस्थावस्था में तीर्थंकर आदि को होता है, उसे बलात् सराग सम्यग्दर्शन सिद्ध करने के लिए उपचार से वीतराग सम्यक्त्व सिद्ध किया जा रहा है और जो व्यवहारसंयम, सरागसंयम, अपहृतसंयम है; उसे बलात् निश्चय संयम, वीतरागसंयम, परमोपेक्षासंयम सिद्ध किया जा रहा है - यह क्या न्याय है? अतः विद्वज्जनों को इस विषय पर गहराई से ऊहापोह कर निर्णय करना चाहिए। इससे ऐसा लगता है कि अविरतसम्यग्दृष्टि को या देशसंयमी (संयमासंयमाचरणी) को निश्चयसम्यक्त्व या स्वसंवेदन/स्वानुभूति या सामायिकादि के काल में होने वाला शुद्धोपयोग सिद्ध न हो जाए, इसलिए यह बलात् आगम के अर्थ को तोड़ा-मरोड़ा तो नहीं जा रहा है? चूँकि ये विचार आचार्यश्री (विद्यासागरजी महाराज) के प्रवचनांश हैं, अतः कहीं हम तो नहीं चूक रहे हैं? - इस विचार से हम उन सन्दर्भो को छानने में जुट गये, पर उन शंकाओं का समाधान नहीं हुआ। फिर अन्य विद्वानों से चर्चा आरम्भ हो गयी! क्षयोपशम के सारे सन्दर्भो को छान लेने पर लगता है, कहीं हम अल्पमतियों की बुद्धि में कमी तो नहीं है? क्योंकि हमारे अधूरे ज्ञान के उघाड़ के कारण हमें कहीं भी छेद नजर नहीं आता? तो हम इस विचार पर पहुँच कर समाधान करने बैठ गये कि उन आचार्यश्री ने जो कहा, उसे लिखनेवाले ने सुनकर लिखा होगा तो उसके समझने में अन्तर आ गया होगा और उन्होंने जो जैसा जितना समझा, वैसा लिख दिया - ऐसी बात हो गयी होगी; अतः अगले कुछ अंकों में उन विषयों पर और कुछ जानने की बात आयी हो तो हम उसे देखने में लग गये। पर काश! हमारा समाधान नहीं हो पाया! यदि आचार्यश्री ने ये बातें कहीं हैं तो उनसे; और जिनने सुनकर लिखी हैं, उनसे भी पूछा जाये तो वे अपनी ही बात दोहरायेंगे न! तो सुसंवाद भले ही हो पायेगा, पर समाधान क्या होगा? अतः पूछने की बात चलाने का मन नहीं हुआ। हाँ! विद्वत्-जगत् बहुत बड़ा है (भले ही वह दो विचारधाराओं में बँटा है); उन सबके सामने अपनी ‘अन्तर की बात' रखने का भाव आया है, अतः यह छोटीसी पुस्तक आपके हाथ में दे रहे हैं और आप विद्वद्वर्य से करबद्ध प्रार्थना है कि हम अल्पमतियों का स्तर वहाँ तक उठाने में हमारी मदद एवं मार्गदर्शन करें, जिससे हमारा समाधान हो सके। ___ एक बात यह भी है कि आचार्यश्री के प्रति हमारी अटूट श्रद्धा अत्यधिक