________________ अन्तर की बात - सौ. लीलावती जैन अन्तर की बात जब आती है तो किस अर्थ से पकड़ी जाए? 'अन्तर की बात का एक अर्थ निकलता है - हृदय की बात! सूक्ष्म अन्तरात्मा की बात! बाहर की नहीं, मिथ्या भी नहीं! इसका दूसरा अर्थ निकलता है कि जब एक शब्द के विषय में दो अर्थ लगा लिये जाते हैं, तब एक अर्थ और दूसरे अर्थ के समझने में अन्तर आ जाता है, फासला (Distance) पड़ जाता है, मतभेद हो जाता है या किसी एक भाव के स्थान पर दूसरा भाव पकड़ लिया है, जबकि दोनों भावों का अर्थ एक सा नहीं है, दोनों में अन्तर है। कदाचित् दो बातें एक-दूसरे से विरोधी भी हो सकती हैं। दोनों अर्थों में जो अन्तर या फर्क है, वह हमारी दृष्टि में कोई विशेष फर्क नहीं है। ___ 'अन्तर की बात' को जब कोई जिस स्तर पर पकड़ता है और जब दूसरा उसे उस स्तर पर पकड़ नहीं पाता तो समझने में अन्तर पड़ जाता है। सूक्ष्म गहरी बात/ भाव को पकड़ना, उसके ज्ञान का उघाड़ की योग्यता/क्षमता पर निर्भर होता है। जब दो व्यक्तियों की इस क्षमता में अन्तर (फासला) पड़ जाता है तो दोनों एक-दूसरे से असहमत हो जाते हैं और जब दोनों के ज्ञान का उघाड़ एक स्तर पर बात को पकड़ लेता है तो सहमति हो जाती है, Wave-length जम जाती है। ___जिनभाषित के मई एवं जून-जुलाई 2007 के सम्पादकीय लेखों को पढ़कर हमारी भी उनसे कुछ मुद्दों पर असहमति हो गयी। विशेषतः जो परमात्मप्रकाश, 2/18, पृष्ठ 132 की संस्कृत टीका का उचित अनुवाद नहीं लगा / यद्यपि हमारा संस्कृत-व्याकरण का सूक्ष्म अध्ययन नहीं है, फिर भी भण्यते' तथा 'विद्यते' का अर्थ था' - ऐसा भूतकाल वाचक कैसे हो सकता है? कहीं अपनी बात मनवाने का प्रयास तो नहीं किया जा रहा है? इसकी टीका का हिन्दी अनुवाद का मिलान, जब हमने मूल ग्रन्थ से किया तथा सम्यक् सम्यक्त्व चर्चा (धर्ममंगल, नवम्बर 2006 का अंक) में विद्वद्वर्य पण्डित श्री रतनलालजी बैनाड़ा द्वारा किये गये अनुवाद से भी मिलान किया तो देखा कि दोनों जगह बिलकुल सही अर्थ में 'भण्यते' एवं 'विद्यते' शब्दों का अर्थ वर्तमान का वाचक में ही किया गया है।