________________ अन्तर की बात आदर की भावना है, उनके चरणों में अपार श्रद्धा से सदैव माथा झुका है तो हमने सोचा कि वे जो कहते हैं, वह सब सही ही होगा - क्यों ऐसी मनोभूमिका ही बना ली जाये, पर फिर भी मन नहीं माना, क्योंकि समाधान, स्तर तक पहुंचे बिना चैन कहाँ? जहाँ शंकाएँ हैं, वहाँ समाधान कैसा? पूर्वाचार्य की टीकाओं में टीकाकारों ने किये अर्थ-निष्पत्ति में निश्चय और व्यवहाररूप - दोनों प्रकार के अर्थ निकालकर दिखाये हैं। यहाँ भी कुछ टीकाकार यह कहते हैं कि चतुर्थ गुणस्थान में अनुभूति एवं शुद्धोपयोग होता है तो कुछ टीकाकार को यह मान्य नहीं; अत: ज्ञानियों को दोनों मतों को सामने रखना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि ऐसा होता ही नहीं है और उसके समर्थन के लिए अपने मनोनुकूल टीकाकारों के वचन उद्धृत कर दें तो एकान्त पक्ष का ही समर्थन हुआ न? तथा यदि दूसरा, उन टीकाकारों के वचनों के आश्रय से यह बता दे कि 'हाँ, होता है और ये उसके सन्दर्भ हैं तो पहला पक्ष, दूसरे पक्ष को एकान्त पक्ष का समर्थक मानने लग जाता है। तथा ऐसा माध्यस्थ्यभाव कि 'कभी होता है, कभी नहीं होता तो वह भी सही समझ से दूर ही रहता है, क्योंकि विवाद की बला टालने हेतु ऐसा माध्यस्थ्यभाव से समझकर विषय को अलग रखा जाता है। तब जिज्ञासु को समाधान कहाँ ? ऐसी स्थिति में मूल सर्वज्ञप्रणीत-अभिप्राय तक कैसे पहुँचें? दोनों पक्ष अपने ही मत का हठाग्रह पकड़कर बैठ जायें तो विषय सम्बन्धी शंका का निर्णय करना मुश्किल होता है। समाधान चाहनेवाले हमारे ज्ञान के उघाड़ पर भी काफी कुछ निर्भर होता है। इस पंचमकाल में सभी छद्मस्थ-निर्भर ही होता है क्योंकि इस पंचमकाल में हम सभी छद्मस्थ-संसारी जीव, अपने ज्ञानउघाड़ के स्तर पर आधे-अधूरे ही हैं। ऐसी ही एक तात्त्विक जिज्ञासा - तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 2, सूत्र 1 में जीव के जो असाधारण पाँच भाव (उत्तरभेद की अपेक्षा 53 भाव) कहे हैं, उनमें क्षायोपशमिकभाव की स्पष्टता मुझे ठीक से नहीं हो पा रही थी, क्योंकि औपशमिक व क्षायिकभाव तो पूर्ण निर्मल भाव होते हैं, जबकि औदयिकभाव पूर्णत: मलिनभाव होते हैं, क्षायोपशमिकभाव को मिश्रभाव भी कहते हैं अर्थात् जिसमें मलिनता के साथ निर्मलता भी हो, उसे किस प्रकार घटित कर समझना? विशेषकर चारित्र गुण की पर्याय, जो मुनिराजों के क्षायोपशमिकभावरूप होती है, क्योंकि उनको मुख्यरूप से शुद्धोपयोगी और गौणरूप से शुभोपयोगी कहा है; अतः उनको संवर