________________ क्षयोपशम भाव चर्चा सविस्तार इसका खुलासा करनाजी / पण्डितजी ने तो दोनों अनुयोगों की कथनशैली में इनका अलग-अलग दृष्टिकोण स्थापित किया है, आखिर क्यों? 8. इसी सिलसिले में इस प्रश्न पर भी विचार आवश्यक प्रतीत होता है कि चौथे गुणस्थान से भी आंशिक शुद्धोपयोग स्वीकार किया जा सकता है या नहीं? 9. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती क्षयोपशम-सम्यक्त्व या वेदक-सम्यक्त्व को शुभोपयोग (सराग-सम्यक्त्व) तथा क्षायिक-सम्यक्त्व या उपशम-सम्यक्त्व को शुद्धोपयोग की संज्ञा दी जा सकती है क्या? राजवार्तिककार ने तो क्षायिकसम्यक्त्व को 'वीतराग-सम्यक्त्व' स्वीकार किया ही है, लेकिन उन्होंने भी उपशमसम्यक्त्व को वीतराग नहीं माना है। वहाँ क्या अपेक्षा है? कृपया स्पष्ट कीजिये। 10. क्या तीन उपयोगों की व्याख्या, दर्शनमोह की मुख्यता से चर्चा नहीं की जा सकती; क्या चारित्र के साथ मिला कर ही उसकी चर्चा हो सकती है। यदि ऐसा है तो सातवें आदि गुणस्थानों में भी चारित्रमोह पूर्ण शुद्ध नहीं हुआ है, अतः वहाँ भी शुभोपयोग ही मानना पड़ेगा; शुद्धोपयोग नहीं। ____11. क्या चतुर्थ गुणस्थानवर्ती उपशम-सम्यक्त्व के प्रारम्भिक काल (करणलब्धि) में भी शुद्धोपयोग नहीं है? क्या उसे उपशम-सम्यक्त्व या क्षायिकसम्यक्त्व की प्राप्ति मात्र शुभोपयोग परिणाम से ही हो जाती है? यहाँ प्रश्न है कि जो क्षायिक-सम्यक्त्व, सिद्धों की अवस्था तक जाता है, वह शुभोपयोग-परिणाम द्वारा कैसे हो सकता है? या वह सम्यक्त्व ही स्वयं शुभोपयोगात्मक है? 12. एक और प्रश्न यह है कि चौथे गुणस्थान में सामान्यतः चारित्र-मोह की स्थिति क्षयोपशमभाव रूप है या नहीं? क्या चतुर्थ गुणस्थानवर्ती को क्षयोपशमचारित्र वाला नहीं कहा जा सकता है? इस प्रश्न को इस प्रकार भी पूछ सकते हैं कि अनन्तानुबन्धी-कषाय के अभाव में कुछ तो चारित्र हुआ कहना चाहिए। यदि हम कहें कि वहाँ चारित्र नहीं है तो क्या उसका चारित्र मिथ्या है? यदि नहीं तो क्या सम्यक् है? यदि नहीं तो क्या वहाँ चारित्र का पारिणामिकभाव है। तो फिर शास्त्रकार ऐसा क्यों लिखते हैं कि सम्यक्त्व के साथ ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् हो जाते हैं और उसके अभाव में मिथ्या रहते हैं। यदि वहाँ चारित्र का औदयिकभाव मानें तो उसे मिथ्या भी मानना पड़ेगा?