________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में क्षयोपशम भाव' 13. अष्टपाहुड में चारित्र के दो भेद किये गये हैं सम्यक्त्वाचरण-चारित्र और संयमाचरण-चारित्र। वहाँ संयमाचरण-चारित्र की अपेक्षा चारित्र के क्षयोपशमादि समस्त भेद घटित हो जाते हैं, लेकिन सम्यक्त्वाचरण-चारित्र को क्षयोपशमादि भेदों में चारित्र का कौनसा भाव माना जाए? - यह विचारणीय है। 14. इसी सन्दर्भ में एक और प्रश्न है कि चारित्र और संयम एकार्थवाची हैं या कछ भिन्नता है? क्या जहाँ-जहाँ चारित्र है. वहाँ-वहाँ संयम है और जहाँ-जहाँ संयम नहीं है, वहाँ-वहाँ चारित्र भी नहीं है? 15. इसी विषय के अनुसन्धान में एक प्रश्न यह भी है कि क्या चतुर्थ गुणस्थान के क्षायिक-सम्यक्त्व में तथा ऊपर-ऊपर के क्षायिक-सम्यक्त्व में अन्तर है? 16. सम्यक्त्व के दश भेदों के माध्यम से यह प्रश्न खड़ा होता है कि उक्त भेद मूलतः श्रद्धा-गुण से सम्बन्ध रखते हैं या अन्य गुणों का उपचार करके सम्यक्त्व के दश भेद किये गये हैं। 17. ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में सम्यक्त्व के लब्धि-स्थानों में अन्तर माना गया है क्या? यदि हाँ तो उसका क्या अर्थ है? लब्धि-स्थान के भेद से सम्यक्त्व की शुद्धि में भेद मानना उचित है क्या? 18. एक और प्रश्न - क्षायिक-सम्यक्त्व कहें या निश्चय-सम्यक्त्व; एक की ही बात है या इनमें कोई अन्तर है? 19. यदि इनमें कोई अन्तर नहीं है तो फिर निश्चय-सम्यक्त्व को निश्चयचारित्र का अविनाभावी कैसे कहा गया है? यदि वे दोनों अविनाभावी हैं तो इनका गुणस्थान क्या होगा? कृपया समझाइये। 20. शुभोपयोग आदि उपयोग के तीन भेद, करणानुयोग-पद्धति को मान्य हैं या नहीं। यदि नहीं तो करणानुयोग-पद्धति में उपयोग की व्याख्या किस प्रकार हैं? 21. उपयोग के ज्ञान-दर्शनात्मक भेदों से इन तीनों भेदों का क्या सम्बन्ध है? यदि है तो जिस प्रकार ज्ञान-दर्शनात्मक भेदों में लब्धि-उपयोग की व्यवस्था है, उसी प्रकार शुभोपयोग आदि में भी लब्धि-उपयोग की व्यवस्था कैसे बनेगी? यदि बनेगी तो किस प्रकार बनेगी और नहीं बनेगी तो क्यों नहीं बनेगी? इसका