________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' उक्त पुस्तक में मुझे इस बात का हल नहीं मिला कि स्थिति-अनुभाग कौन डाल सकता है - मूलाचार की गाथा 968 (अकिंचित्कर अनुशीलन, पृष्ठ 42) का प्रमाण देकर वे यह सिद्ध करना चाहते हैं, परन्तु यह सिद्ध नहीं होता है। उनमें रति, राग आदि सभी कर्मों के बंध के सामान्य प्रत्यय है - यह मानकर भी टीकाकार ने कषाय को ही स्थिति-अनुभाग का कारण स्वीकार किया है। एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि मिथ्यात्व में अपनी प्रकृति के अनुसार ही अनुभाग पड़ता है या कषाय की प्रकृति के अनुसार भी? क्या उसमें दो अनुभाग डाले जाते हैं? यदि मिथ्यात्व, कषाय का काम कर सकता है तो एक आवली के बाद कषाय के उदय आ जाने पर भी उसका कार्य जो मिथ्यात्व कर ही रहा है तो कहना होगा कि अनन्तानुबन्धी अकिंचित्कर है, यह मान्य हो सकेगा क्या? प्रत्येक कर्म में अपने प्रकृति-बन्ध के अनुसार ही अनुभाग के हानि-वृद्धि की प्राप्ति होती है, यही माना जाता है। यदि एक प्रकृति, दूसरी प्रकृति का काम करने लगे तो प्रकृति-भेद ही क्यों हो? केवल एक अपवाद है कि अनन्तानुबन्धी द्विमुखी है, ये चारित्र और सम्यक्त्व दोनों का घात करती है, पर मिथ्यात्व को द्विमुखी कहीं नहीं लिखा गया। मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय आदि को सामान्य प्रत्यय भी लिखा है। गोम्मटसार कर्मकाण्ड का प्रत्ययाधिकार देखिये - 786-787-788; इन सबके देखने के बाद यह तो कह सकते हैं कि मिथ्यात्व, अपना कार्य करने में पूर्ण समर्थ हैं, अकिंचित्कर नहीं कहना चाहिये, पर वह कषाय को प्रभावित करते हुए भी स्वयं कषाय का काम करता है - यह तो मानना योग्य नहीं है। मैंने जो अंश पुस्तक के देखे हैं, उसमें कोई प्रमाण ऐसा नहीं है, जिसमें स्पष्टतया मिथ्यात्व को स्थितिअनुभाग डालने का उल्लेख हो। आपने देखा हो तो लिखिये, मय पृष्ठ संख्या के। मेरे विचार से पण्डितजी ने अकिंचित्कर पुस्तक में पृष्ठ 41-41 पर पंचास्तिकाय गाथा 148 (श्री जयसेनाचार्यकृत तात्पर्यवृत्ति टीका) में तथा मूलाचार उत्तरार्द्ध में स्पष्ट रूप से स्थिति-अनुभाग बंध में मिथ्यात्व को निमित्त कहा है - ऐसा प्रमाण किया है। पंचास्तिकाय की टीका की अन्तिम पंक्ति में अथ यतः कारणात्कर्मादान रूपेण प्रकृति-प्रदेशबन्धहेतुस्ततः.....स्थित्यनुभागबन्धहेतुत्वादभ्यन्तरकारणं