________________ क्षयोपशम भाव चर्चा कषाय इति तात्पर्यः।' पण्डितजी ने इस पंक्ति का उल्लेख अकिंचित्कर पुस्तक में नहीं किया है। इस पंक्ति के आधार पर यह निर्णय-निष्कर्ष निकलता है कि आचार्यदेव ने रति, राग, द्वेष व मोह भावों से कर्मों का स्थिति-अनुभाग बंध लिखा है, परन्तु उनका अभिप्राय बन्ध के सामान्य प्रत्यय से ही है; क्योंकि अन्त में आचार्य ने स्थिति-अनुभाग बन्ध का अन्तरंग कारण कषाय को ही माना है। मेरे विचार से जिस प्रकार पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 26 पर 'मोहनीय कर्म के द्वारा जीव को अयथार्थ-श्रद्धानरूप तो मिथ्यात्भाव होता है, तथा क्रोध-मान-माया-लोभादिक कषायभाव होते हैं .... इन भावों से नवीन बन्ध होता है; इसलिये मोह के उदय से उत्पन्न भाव, बन्ध के कारण हैं।' पृष्ठ 27 पर 'तथा मोह के उदय से मिथ्यात्व, क्रोधादिक भाव हैं, उन सबका नाम सामान्यतः कषाय है, उससे उन कर्म-प्रकृतियों की स्थिति बँधती है ....." पृष्ठ 28 पर ..... अनुभाग बँधता है।' (अकिंचित्कर, पृष्ठ 38 पर इसका उल्लेख किया है।) श्री पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल द्वारा रचित भावदीपिका पृष्ठ 33 (प्रकाशक पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर 1987) पर आस्रवतत्त्व के वर्णन में लिखा है - ‘बहुरि कर्मनि विर्षे स्थिति-अनुभाग बन्ध का कारण, ऐसी मिथ्यात्व- अकषाय-अव्रतविशेष को धरै राग-द्वेषभाव, तिनकू भी आस्रव कहिये।' उक्त प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय मात्र का उदय स्थिति-अनुभाग बंध का कारण है; जो औदयिक विकारी भाव है। इसका भेद करके देखें तो मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय का भेद हो जाता है। सामान्यतः देखें तो मोह या (अन्तदीपक) कषाय को भी स्थिति-अनुभाग बन्ध का कारण कहते हैं। मेरा प्रश्न है - आगम में अनन्तानुबन्धी को द्वि-स्वभावी कहा है - यह लक्षण-दृष्टि का कथन है या विवक्षा है (श्री पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 336/337 पर सिद्ध किया है कि 'अनन्तानुबन्धी चारित्र ही का घात करती है, सम्यक्त्व का घात नहीं करती, सो परमार्थ से है तो ऐसा ही ...... उपचार से अनन्तानुबन्धी के भी सम्यक्त्व का घातकपना कहा जाये तो दोष नहीं है।) मेरे विचार से अनन्तानुबन्धी को द्वि-मुखी कहना विवक्षा है, लक्षण-दृष्टि का कथन - राजमल जैन, भोपाल नहीं है।"