________________ क्षयोपशम भाव चर्चा दया पालता है। ऐसा जीव व्यवहाराभासी, सम्यक्त्व के सन्मुख व सम्यग्दृष्टि जीव भी हो सकता है। गाथा 158 की टीका में अशुभोपयोग का स्वरूप-वर्णन किया है; उसमें विशिष्ट उदयदशा में रहनेवाले दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयरूप कर्मों के अनुसार परिणति में लगा होने से अशुभोपयोगरूप परिणमन करता हुआ उन्मार्ग की श्रद्धा करता है और विषय-कषायादि व कुसंगति-कुविचारों में लगा रहता है। गाथा 159 में अशुद्धोपयोग का निमित्त कारण मन्द-तीव्र उदयदशा में रहने वाला परद्रव्यानुसार (द्रव्यकर्मानुसार) परिणति के आधीन होने से प्रवर्तित होता है। इस गाथा में अशुद्धोपयोग के भेदरूप शुभोपयोग-अशुभोपयोग का कारण विशिष्ट क्षयोपशम या विशिष्ट उदयदशा में रहनेवाले दर्शन-चारित्रमोहनीय का कथन न करके मन्द-तीव्र दशा का कथन किया है। इससे ऐसा लगता है कि गाथा 157-158 में जो विशिष्ट क्षयोपशम या उदयदशा का कथन किया है, उसका मतलब मन्द-तीव्र कर्मोदय से ही है, जो कि सम्यग्दृष्टि या व्यवहार सम्यग्दृष्टियों में भी अपने-अपने पद के योग्य घट जाता है। कुछ विज्ञजन गाथा 157 के आधार पर व्यवहार व्रत-नियम-संयमादि को 'क्षयोपशम भाव' कहते हैं, जिससे इन भावों से संवर भी होता है, बन्ध भी होता है, अत: यह औदयिकभाव नहीं है - क्या यह ठीक है? कुछ विद्वानों का कहना है कि शुभोपयोग, सम्यग्दृष्टि के ही होता है, मिथ्यादृष्टि के नहीं। मिथ्यादृष्टि को शुभोपयोग होता है, जिससे वह उच्च गतियों में जन्म लेता है - क्या यह ठीक है? मेरे विचार से यह कहना मुख्यता की अपेक्षा हो सकता है; तारतम्यता की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों को भी शुभोपयोगअशुभोपयोग, शुभयोग-अशुभयोग होता है। मोक्षमार्गप्रकाशक, पृ. 277 पर लिखा है कि 'मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवालों को पापजीव' कहा है और असंयतादि गुणस्थानवालों को ‘पुण्यजीव' कहा है, सो मुख्यता से ऐसा कहा है, तारतम्यता से दोनों के पुण्य-पाप यथासम्भव होते हैं। श्रीमान् आदरणीय स्व. पं. फूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्रीजी द्वारा लिखित अकिंचित्कर परिशीलन पुस्तक के आधार पर भी प्रश्न आया है; जो निम्न प्रकार है -