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________________ . श्री निःशल्य अष्टमी व्रत कथा [71 ******************************** मुनि-निन्दाके कारणसे इसको त्रिर्यंच आयुका बन्ध हो गया और उसी जन्ममें उसको कोढ़ आदि अनेक व्याधियां भी उत्पन्न हो गयी। पश्चात् वह आयुके अन्तमें कष्टसे मरकर भैंस हुई फिर मरकर सूकरी हुई, फिर कुत्ती हुई, फिर धीवरनी हुई। सो मछली मारकर आजिविका करती हुई जीवनकाल पूरा करने लगी। ___एक दिन वटवृक्ष तले श्रीमुनि ध्यान लगाये तिष्ठे थे कि यह कुरूपा और दुष्ट चित्ता धीवरी जाल लिए हुए वहां आई और मछली पकडनेके लिये नदीमें जाल डाला। यह देख श्री गुरुने उसे दुष्ट कार्यसे रोका और उसके भवांतर सुनाकर कहा कि तू पूर्व पापके फलसे ऐसी दुःखी हुई है और अब भी जो पाप करेगी तो तेरी अत्यन्त दुर्गति होगी। इस धीवरीको मुनि द्वारा अपने भवांतर सुनकर मुर्छा आ गई। पश्चात् सचेत हो प्रार्थना करने लगी-हे नाथ! इस पापसे छूटनेका कोई उपाय हो तो बताइये। . ___ तब श्री गुरुने दया करके सम्यग्दर्शन व श्रावकोंके पांच अणुव्रतों (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण) का उपदेश दिया। अष्टमूलगुण (पंच उदम्बर और तीन मकारोंका त्याग करना) धारण कराये, इस प्रकार वह धीवरी श्रावकके व्रत ग्रहण कर आयुके अंतमें समाधिमरण कर दक्षिण देशमें सुपारानगरके नन्दश्रेष्ठिके यहां नन्दा सेठानीके लक्ष्मीमती नामकी कन्या हुई। सो यद्यपि वह कन्या रूपवान तो थी तथापि अशुभ आचरणके कारण सभी उसकी निंदा करते थे।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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