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________________ श्री श्रावण द्वादशी व्रत कथा [49 कन्या थी। एक दिन यह कपिलाकुमारी अपनी सखियोंके साथ अठखेलियां करती हुई वनक्रीडाके लिये नगरके बाहर गई, सो वहां श्री परम दिगम्बर साधुको देखकर उनकी अत्यंत निंदा की और घृणाकी दृष्टि से वह सखियोंसे कहने लगीदेखोरी बहनों, यह कैसा निर्लज्ज पापी पुरुष है कि पशुके समान नग्न फिरा करता है, और अपना अंग स्त्रियोंको दिखाता है। लोगों को ठगनेके लिये लंघन करके वनमें बैठा रहता है, अथवा कभी कभी ऐसा नंगा वनसे वस्तीमें फिरता रहता है। धिक्कार है इसके नरजन्म पानेको इत्यादि अनेको कुवचन कह कर मुनिके मस्तक पर धूल डाल दी और थूक भी दिया। सो अनेकों उपसर्ग आनेपर भी मुनिराज तो ध्यानसे किंचित्मात्र भी विचलित न हुए और समभावोंसे उपसर्ग जीतकर केवलज्ञान प्राप्त कर परम पदको प्राप्त हुए, परंतु वह कपिला जिसने मदोन्मत्त होकर श्री योगीराजको उपसर्ग किया था, मरकर प्रथम नरकमें गई। वहांसे निकल कर गधी हुई फिर हथिनी, फिर बिल्ली, फिर नागिन, फिर चांडालनी हुई और वहांसे मरकर तुम्हारे घर पुत्री हुई है। सो हे राजा! इस प्रकार मुनि निंदाके पापसे इसकी यह दुर्गति हुई है। राजाने यह भवांतरका वृत्तांत सुनकर पूछा-हे नाथ! इसका यह पाप कैसे छूटे सो कृपाकर कहिये? तब स्वामीने कहा-राजा! सुनो, संसारमें ऐसा कोनसा कार्य हैं कि जिसका उपाय न हो। यदि मनुष्य अपने पूर्व कर्मोकी आलोचना निंदा व गर्हना करके आगेको उन पापोंसे पराङ्गमुख होकर पुन: न करनेकी प्रतिज्ञा करे और पूर्व पापोंकी निर्जरार्थ व्रतादिक करे तो पापोंसे छूट सकता हैं।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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