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________________ ___4] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** (8 श्री श्रावण द्वादशी व्रत कथा) प्रणमूं श्री अरहन्त पद, प्रणमूं शारद माय। श्रावण द्वादशी व्रत कथा, कहूं भव्य हितदाय॥ मालवा प्रांतमें पद्मावतीपुर नामक एक नगर था, वहांका राजा नरब्रह्मा और रानी विजयवल्लभा थी। इनके शीलवती ज्यों ज्यों वह कन्या बड़ी होती थी त्यों त्यों माता-पिताको चिंता बढ़ती जाती थी। एक दिन वे राजा रानी इस प्रकार चिंता कर रहे थे कि इस कुरुपा कन्यासे पाणिग्रहण कौन करेगा? कि पुण्य योगसे उन्हें वनमाली द्वारा यह समाचार मिला कि उद्यानमें श्रवणोत्तम नाम यतीश्वर देशदेशांतरोंमें विहार करते हुए आये हैं। सों राजा उत्साह सहित स्वजन और पुरजनोंको साथ लेकर श्री गुरुकी वन्दनाके लिये वनमें गया और तीन पदक्षिणा देकर प्रभुको नमस्कार करके यथायोग्य स्थानमें बैठा। श्री गुरुने धर्मवृद्धि कहकर आशीर्वाद दिया और मुनि श्रावकके धर्मका उपदेश देकर निश्चय व्यवहार व रत्नत्रय धर्मका स्वरुप समझाया। किस पापके उदयसे ऐसी कुरुपा हुई हैं? तब श्रीगुरुने कहा-अवंती देशमें पांडलपुर नामका नगर था। वहांका राजा संग्राममल्ल और रानी वसुन्धरा थी। उसी नगरमें देवशर्मा नामक पुरोहित और उसकी कालसुरी नामकी स्त्री थी। इस ब्राह्मणके अत्यन्त रुपवान एक कपिला नामकी
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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