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________________ श्री श्रुतस्कन्ध व्रत कथा [37 ******************************** द्वारा स्त्रीलिंग छेदकर सोलहवें (अच्युत) स्वर्गमें देव हुई। वहांसे बाइस सागर आयु पूर्णकर वह देव, जम्बूद्वीपके विदेहक्षेत्र संबंधी अमरावती देशके गंधर्व नगरमें राजा श्रीमंदिरकी रानी महादेवीके सीमन्धर नामका तीर्थंकर पुत्र हुआ सो योग्य अवस्थाको प्राप्त होकर राज्योचित सुख भोग जिनेश्वरी दीक्षा ली और घोर तपश्चरण कर केवलज्ञान प्राप्त करके बहुत जीवोंको धर्मोपदेश दिया, तथा आयुके अंतमें समस्त अघाति कर्मोका भी नाश कर निर्वाण पथ प्राप्त किया। इस प्रकार इस व्रतको धारण करनेसे कालभैरवी नामकी ब्राह्मण कन्याने सुरनर भवोंके सुखोंको भोगकर अक्षय अविनाशी स्वाधीन मोक्षसुखको प्राप्त कर लिया, तो जो अन्य भव्यजीव इस व्रतको पालन करेंगे उनको भी अवश्य ही उत्तम फलकी प्राप्ति होवेगी। षोडशकारण वत धरो, कालभैरवी सार। सुरनरके सुख 'दीप' लह, लहो मोक्ष अधिकार // 1 // (4] श्री श्रुतस्कन्ध व्रत कथा श्रुतस्कन्ध वन्दूं सदा, मन वच शीश नवाय। जा प्रसाद विद्या लहूं, कहूँ कथा सुखदाय॥१॥ जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें एक अंग नामका देश हैं, उसके पाटलीपुत्र (पटना) नगरमें राजा चन्द्ररुचिकी पट्टरानी चंद्रप्रभा के श्रुतशालिनी नामकी एक अत्यंत रुपवान कन्या थी, सो राजाने इस कन्याको जिनमति नामकी आर्या (गुरानी) के पास पढ़ानेको बिठाई जिससे वह थोडी ही दिनोंमें विद्यामें निपुण
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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