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________________ श्री षोडशकारण व्रत कथा .....29.. ******************************** उनके घृणा ही करते हैं और कदाचित् उनके पूर्व पुण्योदयसे उसे कोई कुछ न भी कह सकें, तो भी वह किसीके मनको बदल नहीं सकता है। सत्य है-जो उपरको देखकर चलता है, वह अवश्य ही नीचे गिरता हैं। ऐसे मानी पुरुषको कभी कोई विद्या सिद्ध नहीं होती हैं, क्योंकि विद्या विनयसे आती है। मानी पुरुष चित्तमें सदा खेदित रहता है, क्योंकि वह सदा सबसे सम्मान चाहता हैं, और ऐसा होना असम्भव है, इसलिये निरन्तर सबको अपनेसे बड़ोंमें सदा विनय, समान (बराबरीवाले) पुरुषोंमें प्रेम और छोटोंमें करुणाभावसे प्रवर्तना चाहिये। सदैव अपने दोषोंको स्वीकार करनेके लिये सावधानता पूर्वक तत्पर रहना चाहिये, और दोष बतानेवाले सज्जनका उपकार मानना चाहिये, क्योंकि जो मानी पुरुष अपने दोषोंको स्वीकार नहीं करता, उनके दोष निरन्तर बढते ही जाते हैं और इसलिये वह कभी उनसे मुक्त नहीं हो सकता। इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार इन पांच प्रकारकी विनयोंका वास्तविक स्वरूप विचार कर विनयपूर्वक प्रवर्तन करना, सो विनय-सम्पन्नता नामकी दूसरी भावना हैं। ___(3) विना मर्यादा अर्थात् प्रतिज्ञाके मन वश नहीं होता जैसा कि विना लगाम (बाग रास) के घोडा या बिना अंकुशके हाथी, इसलिये आवश्यक है कि मन व इन्द्रियोंको वश करनेके लिये कुश प्रतिज्ञारूपी अंकुश पासमें रखना चाहिये। तथा अहिंसा (किसी भी जीवका अथवा अपने भी द्रव्य तथा भाव प्राणोंका घात न करना अर्थात् उन्हें न सताना), सत्य (यथार्थ वचन बोलना, जो किसीको भी पीडाजनक न हों), अचौर्य (विना दिये हुए पर-वस्तुका ग्रहण न करना), ब्रह्मचर्य
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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