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________________ 28] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * (निर्ग्रन्थ) गुरु और सच्चे (जिन भाषित) धर्म पर श्रद्धा (विश्वास) लावें। पश्चात् सप्त तत्त्वों तथा पुण्य पापका स्वरूप जानकर इनकी श्रद्धा करके अपने आत्माको पर पदार्थोसे भिन्न अनुभव करें और इनके सिवाय अन्य मिथ्या देव गुरु व धर्मको दूर ही से इस प्रकार छोड दे जैसे तोता अवसर पाकर पिंजरेसे निकल भागता है। ऐसे सम्यक्त्वी पुरुषोंके प्रशम (मंद कषाय स्वरूप समभाव अर्थात् सुखी व दुःखमें समुद्र सरीखा गम्भीर रहना, घबराना नहीं), संवेग (धर्मानुराग सांसारिक विषयोंसे विरक्त हो धर्म और धर्मायतनोंमें प्रेम बढाना), अनुकंपा (करुणा दुःखी जीवों पर दयाभाव करके उनकी यथाशक्ति सहायता करना) और आस्तिक्य (श्रद्धा-कैसा भी अवसर क्यों न आये, तो भी अपने निर्णय किये हुए सन्मार्गमें दृढ़ रहना) ये चार गुण प्रकट हो जाते हैं। उन्हें किसी प्रकारका भय व चिन्ता व्याकुल नहीं कर सकती। वे धीरवीर सदा प्रसन्नचित ही रहते हैं, कभी किसी चीजकी उन्हें प्रबल इच्छा नहीं होती, चाहे वे चारित्रमोह कर्मके उदयसे व्रत न भी ग्रहण कर सकें तो भी व्रत और व्रती संयमी जनोंमें उनकी श्रद्धा भक्ति व सहानुभूति अवश्य रहती हैं जो कि मोक्षमार्गकी प्रथम सोपान (सीढी) है इसलिये इसे ही 25 मलदोषोंसे रहित और अष्ट अंग सहित धारण करो। इसके बिना ज्ञान और चारित्र सब निष्फल (मिथ्या) हैं, यही दर्शनविशुद्धि नामकी प्रथम भावना है। . (2) जीव (मनुष्य) जो संसारमें सबकी दृष्टि से उतर जाता है, उसका प्रधान कारण केवल अहंकार (मान) है। सो कदाचित् वह मानी अपनी समझमें भले ही अपने आपको बडा माने परंतु क्या कौआ मंदिरके शिखर पर बैठ जानेसे गरुड पक्षी हो सकता है? कभी नहीं। किन्तु सर्व ही प्राणी
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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