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________________ 14] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** आरम्भोका त्यागं करें। इस प्रकार तेरस, चौदस और पुनम तीन प्रोषध दिन (प्रोषह उपवास) करे और प्रतिपदा (पडवा) को श्री जिनदेवके अभिषेक पूजनके अनन्तर सामायिक करके तथा किसी अतिथि वा दुःखीत भूखितको भोजन कराकर भोजन करे, इस दिन भी एकभूक्त ही करना चाहिये। __ इन व्रतोंके पांचों दिनोंमें समस्त सावध (पाप बढ़ानेवाले) आरम्भ और विशेष परिग्रहका त्याग करके अपना समय सामाजिक, पूजा स्वाध्यायादि धर्मध्यानमें बितावे। इस प्रकार यह व्रत 12 वर्ष तक करके पश्चात् उद्यापन करे और यदि उद्यापनकी शक्ति न होवे तो दूना व्रत करे, यह उत्कृष्ट व्रतकी विधि है। ____ यदि इतनी भी शक्ति न होवे तो बेला करे या कांजी आहार करे तथा आठ वर्ष करके उद्यापन करे यह मध्यम विधि है। और जो इतनी शक्ति न होवे तो एकासना करके करे और तीन ही वर्ष या पांच वर्ष तक करके उद्यापन करे, यह जघन्य विधि हैं। सो स्वशक्ति अनुसार व्रत धारण कर पालन करे। नित्य प्रतिदिनमें त्रिकाल सामायिक तथा रत्नत्रय पूजन विधान करे और तीनवार इस व्रतका जाप्य जपे अर्थात् ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यो नमः, इस मंत्रकी 108 बार जाप जपे, तब एक जाप्य होती है। ___ इस प्रकार व्रत पूर्ण होनेपर उद्यापन करे। अर्थात् श्री जिनमंदिरमें जाकर महोत्सव करे। छत्र, चमर, झारी, कलश, दर्पण, पंखा, ध्वजा और ठमनी आदि मंगल द्रव्य चढावे, चन्दोवा बंधावे और कमसे कम तीन शास्त्र मंदिरमें पधरावें, प्रतिष्ठा करे, उद्यापनके हर्षमें विद्यादान करे, पाठशाला,
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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