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________________ श्री रत्नत्रय व्रत कथा [13 ******************************** धारक, ये छ : अनायतन और 1 लोक मूढता (लौकिक चमत्कारोंके कारण लोभमें फंसकर रागी द्वेषी देवोंका पूजना) और तीन पाखण्डी मूढ़ता (कुलीन आडम्बरधारी गुरुओंकी सेवा करना) इस प्रकार ये पच्चीस सम्यक्त्व के दूषण हैं। इससे सम्यक्त्वका एकदेश घात होता है इसलिये इन्हें त्याग देना चाहिये। (2) पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय आदि दोषोंसे रहित जानना सो सम्यग्ज्ञान है। (3) आत्माको निज परिणति (जो वीतराग रूप है) में ही रमण करता, अर्थात् रागद्वेषादि विभाव भावों क्रोधादि कषायोंसे आत्माको अलग करने व बचानेके लिये व्रत, संयम तपादिक करना सो सम्यक्चारित्र है। इस प्रकार इस रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्गको समझकर और उसे स्वशक्ति अनुसार धारण करके जो कोई भव्यजीव बाह्य तपाचरण धारण करता है वही सच्चे (मोक्ष) सुखको प्राप्त होता है। इस प्रकार रत्नत्रयका स्वरूप कहकर अब बाह्य व्रत पालनेकी विधि कहते है - भादो, माघ और चैत्र मासके शुक्ल पक्षमें, तेरस चौदस और पुनम इस प्रकार तीन दिन यह व्रत किया जाता है और 12 को व्रतकी धारणा तथा प्रतिपदाको पारणा किया जाता हैं, अर्थात् 12 को श्री जिन भगवानकी पूजनाभिषेक करके एकाशन (एकभुक्त) करे और फिर मध्याह्नकालकी सामायिक करके उसी समयसे चारों प्रकारके (खाद्य, स्वाध, लेह्य और पेय) आहार तथा विकथाओं और सब प्रकारके
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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