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________________ श्री अक्षयततीया व्रत कथा [147 ******************************** वहां पहुंचकर चैत्यालयकी वंदना की, सर्व प्रथम चैत्यालयको तीन प्रदक्षिणा दी तथा भगवानकी स्तुति. स्तवन रूप स्तवन वा गुण स्तवन करता हुआ साष्टांग नमस्कार किया। ..... - फिर भगवानको मणिमय सिंहासन पर विराजमान कर बडे उत्साहके साथ पंचामृत कलशाभिषेक किया व अष्ट द्रव्योंसे पूजा की। भगवत् आराधनाके पश्चात् राजा मुनिराजके पास पहुंचा व नमस्कार कर चरण समीप बैठ गया और मुनिराजसे प्रार्थना की-हे मुनिवर! कृपाकर धर्म श्रवण कराओ। . ___ उधर राणी पृथ्वीदेवीने (राजाकी पट्टरानीने) दोनों कर जोडे विनम्र निवेदन किया कि हे मुनिवर! इस भवमें मुझे सब सुख प्राप्त है, परंतु संतानके अभावमें मेरा जन्म निरर्थक हैं। . कुछ क्षण रूककर मुनिराजने जवाब दिया कि हे देवी! तुम्हारे अंतराय कर्मका उदय है, अस्तु तुम्हारे कोई संतान नहीं है। रानीने पुनः निवेदन किया कि हे महाराज! ऐसा कोनसा पूर्वभवका उदय है, कृपाकर समझाइये, अर्थात् मेरे अंतराय कर्म होनेका पूर्व भव सुनाइये- . .. भरतक्षेत्रमें काश्मीर नामका एक विशाल देश हैं जिसमें रत्नसंचयपुर नामका एक सुन्दर नगर हैं। वहां एक वैश्य कुलमें उत्पन्न श्रीवत्स नामका राजा सेठ रहता था। जिसकी सेठानीका नाम श्रीमती था। वह अत्यंत सुंदर एवं गुणवान थी। दोनों सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करते थे। तब इसी नगरमें चैत्यालयकी वंदना हेतु मुनिगुप्त नामके दिव्यज्ञान धारी अन्य 500 मुनियोंके साथ पधारे। ____ मुनिगणके दर्शन पाकर राजा सेठ अत्यंत प्रसन्न हुआ और अपना जन्म सफल समझा। उसने मुनि महाराजको नमोस्तु कर मुनिसंघको अपने उद्यानमें ले गया। घर जाकर अपनी स्त्री श्रीमतीसे कहा कि तुम आहारकी व्यवस्था शीघ्र करो, आज हमारा पुण्योदय हैं जिससे विशाल मुनि संघका आगमन हुआ है।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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