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________________ श्री अक्षयतृतीया व्रत कथा [145 ******************************** (40 श्री अक्षयतृतीया व्रत कथा) - जम्बूद्वीपमें भरतक्षेत्रके अन्दर राजगृह नामकी एक सुन्दर नगरी है। वहां मेघनाद नामका महा मण्डलेश्वर राजा राज्य करता था। वह रूप लावण्यसे अत्यन्त सुन्दर था वह रूपवानके साथ साथ बलवान एवं योद्धा भी था। उसकी पट्टरानीका नाम पृथ्वीदेवी था। वह अति रूपवान व जैनधर्म रत थी। उसे जैन धर्म पर पक्का श्रद्धान था। राजा मेघनादके राज्यमें सारी प्रजा प्रसन्न थी। राजा बडे विनोदके साथ राज्य कर रहा था। एक दिन पट्टराणी पृथ्वीदेवी अपनी अन्य सहेलियोंके साथ अपने महलकी सातवीं मंजिलसे दिशावलोकन कर रही थी आनंदसे बैठी बैठी विनोदकी बातें कर रही थी तब उसने देखा कि बहुतसे विद्यार्थी विद्या पढकर अपने घर आ रहे थे जो खेलने कुदनेमें इतने मग्न थे कि उनका सारा बदन धूलसे सना हुआ था। आठों अंग खेलनेमें क्रियारत थे। ___राणीने उक्त बालकोकी सारी क्रिया देखी तो उसका चित्त विचारमग्न हो गया। राणीको कोई पुत्र नहीं था। बालकोंका अभिनय देखकर उसे अपने पुत्र न होनेका दुःख हुआ। दिलमें विचार किया कि जिस स्त्रीके कुखसे पुत्र जन्म नहीं होता उसका जीना इस संसारमें वृथा है। इन्हीं विचारधाराओंके साथ वह नीचे आई तथा चिंताका शरीर बनाकर शयनकक्षमें जाकर सो गई। कुछ समय पश्चात् राजा उधर आया तो उसने राणीको इस तरह देखकर विस्मितता प्रगट की। राणीसे पूछा-प्रिये! आज आप इतनी चिंतित क्यों हो? राणी चूप रही। पुनः राजाने प्रश्न किया, अनेकबार राजाके प्रश्न करने
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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