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________________ 136] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** बहुतसे सोनेके खम्भे निकले, जो मिट्टीसे दबे रहनेके कारण मैले हो रहे थे और लोहेके समान प्रतीत होते थे। सो मजदूर लोग उन्हें उठाकर बेचने ले गये। एक खम्भा इनमें सेठ जिनदत्तने भी लिया और जब पीछे जांच की तो सोनेका निकला, परंतु मूल्य लोहेका दिया था। जब शेष द्रव्यको अपना न समझकर उसने धर्मकार्यो में लगा दिया, इस प्रकार यह परधनसे निवृत्ति लोभ होकर सानन्द रहने लगा। परंतु पिण्याकगन्ध जिसने बहुतसे खम्बे लोहेकी कीमतसे ले रखे थे और सोनेका जानता भी था उसने द्रव्यसे मोहित होकर संचित कर रखे। __ एक दिन राजा तालाब देखनेको गया और एक खम्भा और भी पडा देखा सों जांच करने पर सोनेका प्रतीत हुआ। इसके पीछे और भी खुदाया तो वहां एक पेटी जिसमें ताम्रपत्र भी निकला। उस ताम्रपत्रमें 100 खम्भोंकी बात लिखी थी। तब राजाने शेष खम्भोंकी तलाश की तो मालूम हुआ कि एक खम्भा तो जिनदत्त सेठने मोल लिया है, 98 पिण्याकगन्धमे लिये हैं। .. राजाने दोनों सेठको बुलाया सो जिनदत्त सेठने तो स्वीकार कर लिया और उस खम्भेसे उत्पन्न द्रव्यका हिसाब राजाको दिखाकर निर्दोष रीत्या छुटकारा पा गया। इतना ही नहीं राजाने उसकी सच्चाईसे प्रसन्न होकर उसकी प्रशंसा की और पारितोषिक भी दिया। परंतु पिण्याकगन्धने स्वीकार नहीं किया, इससे राजाने उसके घरका सब द्रव्य झुटवा लिया। वे सोनेके 98 खम्भे जो लोहेकी किंमत लिये थे सो तो गये ही, परंतु साथमें और भी 32 करोड रूपयेकी सम्पत्ति भी गई। पिण्याकगन्ध इस दु:खको सहन करने में असमर्थ था इसलिए उसने अपने पांवपर पत्थर पटककर आत्मघात कर प्राण छोड़े और भरकर रोंद्रध्यानसे छठवें नर्कमें गया।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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