________________ 134] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** तब भक्ति सहित वन्दना करके राजाने मुनिराजके शरीरकी कुशल पूछी। तब शरीरसे सर्वथा निष्प्रेम उन मुनिराजने कहा-राजन! शरीर तो क्षणभंगुर है, इसकी कुशल अकुशलता ही क्या? ज्ञानी पुरुष इस पर वस्तु जानकर इसमें ममत्वभाव नहीं रखते हैं। . - नाशवान देह तो किसी दिन निश्चय ही नष्ट होवेगा और यह आत्मा तो अविनाशी टकोत्कीर्ण स्वभावसे ज्ञाता दृष्टा है। सो उसकी पुद्गलादि पर पदार्थ कुछ भी बाधा नहीं पहुंचा सकते हैं इत्यादि। .. इस प्रकार मुनिराजके वचनोंसे राजाको बहुत आनन्द हुआ परंतु वह वैद्य 'जिसने औषधि बनाई थी, अपनी प्रशंसा न सुनकर तथा औषधि प्रयोगपर अपेक्षा भाव देखकर कुपित हुआ और मुनिकी कृत ध्वनि आदि शब्दोंसे निंदा करने लगा। इससे वह तीर्यंच आयुका बन्ध करके उसी वनमें बन्दर (कपि) हुआ सो एक दिन जब कि वह बन्दर (वैद्यका जीव) वनमें एक वृक्षके उछलकर दूसरे पर, और दूसरे तीसरे वृक्ष पर जा रहा था, तब पवनके वेगसे उस वृक्षकी एक डाली जिसके नीचे मुनिराज बैठे थे, टूटकर उन पर पड़ा और उससे एक बडा घाव मुनिके शरीरमें हो गया, जिससे रक्त बहने लगा। यह देखकर वह बन्दर कौतुकवश वहां आया और देखा कि मुनिराजके उपर वृक्षकी एक बड़ी डाल गिर पडी है और उससे घाव होकर लहु बह रहा है। मुनिको देखकर बन्दरको जातिस्मरण हो गया जिससे उसने जाना कि पूर्व भवमें मैं वैद्य था, और मैंने इन्हीं मुनिराजकी औषधि की थी परंतु उनके मुखसे प्रशंसा न सुनकर मैंने मान कषाय वश उनकी निंदा की थी कि जिससे कि मैं बन्दरकी योनिको प्राप्त हुआ।