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________________ 96] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** करके अणुव्रत पालन करने लगा। और आयुके अंतमें चया, पाटलीपुत्रनगरमें महीचंद्र नामका राजा हुआ। यह महीचंद्र राजा एक दिन वनक्रीडाको गया था। इसके पुण्योदयसे वहां (उद्यानमें) श्री मुनिराजके दर्शन हो गये।तब सविनय साष्टांग नमस्कार कहके राजा धर्मश्रवणकी इच्छासे वहां बैठ गया। इतनेमें कानी, कुबडी और कोढ़ी ऐसी तीन कन्याएं अत्यन्त दुःखित हुई वहां आई। उन्हें देखकर राजा महीचंद्रको मोह उत्पन्न हुआ, तब राजाने श्री गुरुसे अपने मोह उत्पन्न होनेका कारण पूछा तब श्री गुरुने इनके भवांतरका संबंध कह सुनाया कि राजन्! तू अबसे तीसरे भवमें बनारसका राजा विश्वसेन था और रानी तेरी विशालनयना थी, सो नाटकका अभिनय देखते हुए नाटककार पात्रोंके हावभावोंसे चंचलित होकर तेरी रानी अपनी रंगी और चमरी नामकी दो दासियों सहित निकल कर कुपथगामिनी हो गई। सो वे तीनों वैश्याकर्म करती हुई एक समय किसी राजाके पास कुछ याचनाको जा रही थी कि रास्तेमें परम दिगम्बर मुनिराजको देखकर अपने कार्यके साधनमें अपशुकन मानने लगी और रात्रि समय मुनिराजके पास आकर अपने घृणित स्वभावानुसार हावभाव दिखाने और मुनिराजके ध्यानमें विघ्न करने लगी, परंतु जैसे कोई धूल फेंककर सूर्यको मलीन नहीं कर सकता है, उसी प्रकारसे वे कुलटाएँ श्री मुनिराजको किंचित् भी ध्यानसे न चला सकीं। सत्य हैं क्या प्रलयकी पवन कभी अचल सुमेरुको चला सकती है? ___स्त्री चरित्रके साथ साथ स्त्रियोंकी प्यारी रात्रि भी पूर्ण हुई। प्रातःकाल हुआ। सूर्य उदय होते ही वे दुष्टनी विफलमनोरथ होकर वहांसे चली गयीं और यहां मुनिराजके निश्चल ध्यानके कारण देवोंने जय जयकार शब्द करके पंचाश्चर्य किये।
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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