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________________ श्री लब्धिविधान व्रत कथा / 95 *********** ********************* (19 श्री लब्धिविधान व्रत कथा) प्रथम नमू जिन वीर पद, पुनि गुरू गौतम पाय। लब्धि विधान कथा कहूँ, शारद होहु सहाय॥ काशी देशमें वाराणसी नामकी नगरीका महाप्रतापी विश्वसेन राजा था। उसकी रानीका नाम विशालनयना था, एक दिन राजाने कौतुकपूर्ण हृदयसे नाटकका खेल करवाया। नाटकके पात्रोंने राजाको प्रसन्नतार्थ अनेक प्रकार गीत, नृत्य, हावभाव, विभ्रमादिक पूर्वक नाटकका खेल खेलना आरम्भ कर दिया, सो राजा रानी और सब पुरजन अपने योग्य आसनों पर बैठकर सहर्षअभिनय देखने लगे। __उन नाटकका पात्रोंके विविध भेष और हावभावोंसे रानीका चित्त चंचल हो उठा, और वह चमरी और रंगो नामकी अपनी दो सखियों सहित घरसे निकल पडी। तथा कुसंगमें पडकर अपना शीलधर्मरूपी भूषण खो बैठी। वह ग्रामोग्राम भ्रमण करती हुई वेश्या कर्म करने लगी। जीवोंके भाव तथा कर्मोकी गति विचित्र है। देखो रानी, रनवासके सुख छोडकर गली गलीकी कुत्ती हो गई। सत्य है, इन नाटकोंसे कितने घर नहीं उजडे? रानी जैसीको यह दशा हुई तो अन्य जनोंका कहना ही क्या है? ___ राजा भी अपनी प्रियतमाके वियोगजनित दु:खको न सह . सकनेके कारण पुत्रको राज्य देकर वनमें चला गया। और इष्टवियोग (आर्तध्यान) से मरकर हाथी हुआ, सो वनमें भटकते भटकते एक समय किसी पुण्य संयोगसे श्री मुनिराजका दर्शन हो गया और धर्मबोध भी मिला, जिसे वह हाथी सम्यक्त्वको प्राप्त
SR No.032856
Book TitleJain 40 Vratha katha Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2002
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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