________________ के रूप में ग्रहण करते है / इन में से अंकुर, डंडी, पत्र, पुष्प, फल आदि बनते हैं / ये अंकुरमद सभी पदार्थ भूमि, खात, और पानी की अपेक्षा सर्वथा विलक्षण वर्ण, रस, गंध और स्पर्शवाले दिखाई देते हैं / इस से ज्ञात होता है कि स्वतन्त्र जीवद्रव्य और कर्म की शक्ति के बिना यह व्यवस्थित एवं विलक्षण सृजन संभव नहीं / यहाँ इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि वृक्ष में अनेक मुख्य जीव होने के साथ साथ पत्ते पत्ते आदि में पृथक् पृथक् जीव होते हैं / (17) (3-4-7) पुण्य - पाप - आश्रव पुण्य तत्त्वमें शुभकर्म व पापतत्त्व में अशुभकर्म आते है / आगे 'कर्म' प्रकरण में 42 शुभकर्म (पुण्य) 82 अशुभकर्म (पाप) इत्यादि बताया जाएगा / (5) आश्रव तत्त्व : आश्रव अर्थात् कर्मबंध के कारण / जिनके द्वारा आत्मा में कर्मो का आश्रवण-प्रवाह चालु रहता है वे हे आश्रव / आश्रव पांच है - (1) मिथ्यात्व (2) अविरति (3) कषाय (4) योग और (5) प्रमाद / (1) मिथ्यात्व :- यह है मिथ्यारुचि, मिथ्यातत्त्व की मान्यता, मिथ्या देव-गुरु-धर्म की मान्यता-श्रद्धा / वीतराग सर्वज्ञ भगवानने कहे हुए जीव, अजीव आदि तत्त्वो एवं सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग पर श्रद्धा