________________ (कषाय), ये हेय है, त्याज्य हैं / इन तत्त्वों पर श्रद्धा ऐसी होनी चाहिए कि सर्वज्ञ भगवानने जो तत्त्व जिस स्वरूप का बताया है, उसके प्रति उसके अनुरूप परिणति (मानसिक वलण-वृत्ति) होनी चाहिए / __ शुभ आश्रव यानी धर्मक्रिया, पुण्य, संवर व निर्जरा को उपादेय स्वरूप के बताये, तो उनके प्रति अपनी आंतरिक परिणति उपादेय स्वरूप के अनुरूप यानी हर्ष, आकर्षण व अनुमोदन की होनी जरुरी है / वैसे; पाप, अशुभ आश्रव व बंध ये हेय स्वरूपवाले हैं, तो उनके प्रति उसके अनुरुप भाव भय, अरुचि, अभाव के है; तो उन हेय तत्त्व के प्रति यह भय आदि भाव होने चाहिए / इस प्रकार हमें अगर हेय तत्त्व अशुभ आश्रवके प्रति, पापसाधनों के प्रति अरुचि-भय आ जाए, तो एक दिन पाप चले जाएँगे, व धर्म-धर्मसाधनाओं के प्रति दिल में हर्ष-आकर्षण होते रहे तो एक दिन हम धर्म-साधनाओं को अपना लेंगे / ऐसे आगे बढ़ते बढते हम यावत् मोक्ष तक पहुँच सकते है / यह सब तत्त्वश्रद्धा आने पर ही होता है, वास्ते तत्त्वश्रद्धा यानी सम्यग्दर्शन; यह मूल नींव है / उस पर व्रतों की इमारत खडी होती है / इस से पता चलेगा कि तत्त्वों का अकेला-शुष्क ज्ञान हो, किन्तु अपने दिल में अनुरूप परिणति न हो, तो वह सम्यग्दर्शन ही नहीं है / इसलिए सम्यग्दर्शन के लिए जीव-अजीव आदि नौ तत्त्वो की 568