________________ इस में यह प्रतिज्ञा कर के दो घडी तक शास्त्रस्वाध्यायादि किया जाता है / प्रस्तुत में प्रतिक्रमण की क्रिया की जाती है / प्रतिक्रमण में पहले इस प्रतिज्ञा यानी विरति की आवश्यकता इसलिए है कि आत्मा पर से प्रतिक्रमण द्वारा जो पश्चात्ताप आदि कर के पाप-संस्कार व पापकर्मो का नाश करना है, यह पापनाश अविरति द्वारा पापो के साथ लगी हुइ अशुद्ध आत्मा से नहीं हो सकता / वास्ते सामायिक की पहली आवश्यकता है / ___ (2) 'चतुर्विंशति-स्तव' है वर्तमान अवसर्पिणी काल में हुए पहले तीर्थंकर भगवान श्री ऋषभदेव स्वामी से लेकर 24 वें वर्धमान स्वामी (महावीर स्वामी) तक के चोवीश तीर्थंकर भगवन्तो की स्तुति वन्दना व प्रार्थना का सूत्र / प्रतिक्रमण करते पहले यह इसलिए आवश्यक है कि कोई भी शुभ कार्य मंगलरुप में देवाधिदेव व गुरु को वंदन करने-पूर्वक ही किया जाता है, ताकि विघ्नों का नाश हो / (3) 'वंदन' है गुरु की विधिपूर्वक की जाती वंदना / इस में दो अंश होते है, (i) गुरु के चरणस्पर्श पूर्वक गुरु को शाता पृच्छा / एवं (ii) गुरु के प्रति जान - अनजानपन में हो गइ विविध आशातना के मिथ्यादुष्कृत का निवेदन / (4) 'प्रतिक्रमण' :- यह मुख्य क्रिया है / इस में दिन-गत के अपने से किये गए (i) तीर्थंकर के द्वारा निषिद्ध पाप कर्मो के आचरण, (ii) तीर्थंकर विदित शुभ कर्तव्य की उपेक्षा, (iii) जिनवचनोक्त तत्त्व 2 2998