________________ भी करें, तो उससे लज्जित नहीं होना, किन्तु उसकी उपेक्षाकर धर्मक्रिया में बहुत उद्यत रहना / 13. धन, स्वजन, आहार, गृह आदि को मात्र देह - निर्वाह के साधन मानकर, ऐसे सांसारिक पदार्थो में राग द्वेष न करते हुए, मध्यस्थ रहना / 14. उपशम को ही सुख रूप और प्रवचन का सार समझकर उपशम प्रधान विचारो में ही रमण करना / मध्यस्थ और स्व-पर हितकारी रहते हुए किसी प्रकार का दुराग्रह नहीं करना, सत्य का आग्रही बना रहना / 15. समस्त वस्तु की क्षणभंगुरता मन में सतत भावित करते रहना, व स्वजनादि में बैठे हुए भी 'इन सब का संयोग भी नाशवंत है' ऐसा समझकर इन्हें 'पर' मान लेना, अंतर से असंबद्ध रहना, अर्थात् इन पर आंतरिक ममता का संबंध न रखना / ___ 16. संसार के प्रति विरक्त मनवाला बनकर "भोग-उपभोग कभी तृप्ति के करने वाले नहीं, इन से कभी तृप्ति नहीं होती है, वरना इन की तृष्णा बढती है / " ऐसा मानकर, अगर कामभोग में प्रवृत्त भी होना पड़े तो वह केवल कुटुंबीयों का मुंह रखने के लिए ही प्रवृत्त होना, किन्तु इन्हें मौज-शौक समझकर नहीं / 17. गृहवास में निराशंस-निरासक्त बनकर इसे पराया समझता PR 2758