________________ (4) साश्रव-निराश्रव धर्म में जो आरंभ-समारंभ से युक्त है, जैसे कि जिनपूजा-साधर्मिक भक्ति, यात्रा संघ, मंदिर निर्माण इत्यादि / वे सानव धर्म हैं / सामायिकादि निराश्रव धर्म हैं / (29) सम्यग्दर्शन मार्गानुसारी और अपुनर्बंधक अवस्था जैनेतरो में भी संभव है / राजा भर्तृहरि जैसे प्रचंड वैराग्य प्राप्तकर संसार का त्याग करके अवधूत संन्यासी बन गए थे / वे इस अपुनर्बंधक दशा की सुंदर स्थिति को प्राप्त किए हुए थे / किन्तु उन्हें वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित तत्त्वों की प्राप्ति नहीं हुई थी / अतः वे सम्यग्दर्शन की अवस्था तक नहीं आ सके थे, और न ही उच्च गुणस्थानक पर चढ़ सके थें / इसलिए सम्यग्दर्शन की नींव स्थापित करने की खास तौर पर आवश्यकता है / सम्यग्दर्शन यह दानादि धर्म, अणुव्रतादि श्रावकधर्म, क्षमादि यतिधर्म, एवं अध्यात्मादि योगधर्म की नींव है / 'सम्यग्दर्शन' का अर्थ है 'जिनोक्त तत्त्व पर रुचि' / 'जैन' यानी वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कथित तत्त्वभूत पदार्थ की हार्दिक अनन्य श्रद्धा, यह सम्यग्दर्शन है / इसमें 'तत्त्व' अर्थात् वस्तु-स्वरूप / यह अनेकान्तमय है, एकान्तरूप नहीं / इसके प्रतिपादक वीतराग सर्वज्ञ हैं / वीतराग भगवान में असत्य कथन के कारणभूत राग-द्वेष आदि का अभाव है / एवं असत्य के कारणभूत अज्ञानता का भी अभाव 2 2488