________________ (28) धर्म के चार प्रकार (1) दानादिक धर्म (2) सम्यग्दर्शनादि धर्म (3) योगात्मक धर्म (4) साश्रव-निराश्रव धर्म (1) दानादिक धर्म 4 प्रकार का है (i) दान, (ii) शील, (iii) तप, (iv) भावना / जीव का अनादि का स्वभाव स्वार्थकरण का बना हुआ है; स्वयं को जो प्राप्त हुआ है वह स्वयं ही रखे, स्वयं ही भुगते, स्वयं ही खाए, यह सब स्वार्थमाया है / इससे विपरीत है परार्थकरण, अर्थात् पर को (दूसरे को) दे, अन्य को खिलाए, अन्यका सुख का विषय बनाए / 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः' अर्थात् जिसमें से दूसरों के लिए छोडा, वहीं सुखसाधन को भोंगना / केवल अपने ही सुख का विचार यह क्षुद्रता है, स्वार्थांधता है, जब कि दूसरे के सुख का विचार कितना महान और उदात्त है / 24 वें तीर्थंकर श्री महावीर भगवान का जीव प्रथम भव में नयसार नाम का गांव का मुखी था | अरण्य में राजा को आदेश से रथ बनाने योग्य काष्ट लेने गया था / जब भोजन समय हुआ तो उसने सोचा कि अतिथि को भोजन करवा कर भोजन करूं / अतिथि की सेवा कितनी प्रबल कि जंगल में स्वयं ही अतिथि को ढूंढने निकल पडा / सद्भाग्य के योग से घने अरण्य में भी उसे अतिथि के रुप में दो जैन मुनि ही मिल गए / मुनियों को सुपात्रदान दिया मुनि ने भी उसे सम्यक्त्व-धर्म दिया / 30 2390