________________ कभी दर्शन-मोहनीय कर्म की उत्कृष्टस्थिति (70 कोडाकोडी सागरोपम की) नहीं बंधती / इस अवस्था की उपलब्धि के लिए मूल में तीन गुण आवश्यक हैं - 1. तीव्र भाव से पाप का आचरण न करना / अर्थात् पाप से छुटकारा न होता तो भी कम से कम हृदय को पापभीरू, पाप से उद्वेग युक्त और कोमल रखना / पाप राचमाच के नहीं करना / 2. घोर संसार पर बहुमान न धरना / 'संसार' अर्थात् चारगति में भ्रमण / 'संसार' अर्थात् दुन्यवी सुख / 'संसार' अर्थात् अर्थ-काम, तथा विषय-कषाय / 'संसार' अर्थात् कर्मबन्धन | 'यह संसार भयंकर है' इस बात को ध्यान में रखकर संसार के प्रति पक्षपात, इस पर आस्था नहीं रखनी, अथवा इस में अच्छाई की बुद्धि नहीं रखनी / 3. उचित स्थिति का पालन करना / अपनी स्थिति के अनुचित व्यवहार नहीं करना / / अब ऐसी रसाल (उर्वरा) आत्मभूमि में सम्यग्दर्शन आदि धर्म का सुन्दर वपन होता है / 2 2388