________________ की जाए / 11. ज्ञाति में ज्ञानवृद्ध व चारित्रपात्र की सेवा ग्यारहवाँ कर्तव्य आठ दोष का त्याग - 1. निंदात्यागः- दूसरे की निंदा न तो स्वयं करना, व न सुनना / निंदा महान दोष है / इससे हृदय में श्यामता, प्रेमभंग, नीचगोत्र कर्म का बंध आदि हानियाँ उत्पन्न होती है / 2. निंद्यप्रवृत्ति का त्याग :- जैसे मुख से निंदा नहीं करना, वैसे ही शरीर अथवा इन्द्रियाँ से दूसरों का विश्वासघात, बेइमानी, जुआ आदि निन्दनीय प्रवृत्तियाँ भी नहीं करनी / अन्यथा निंदा होती है, और पाप लगता है / 3. इन्द्रियों की गुलामी का त्याग :- इन्दियों को अयोग्य स्थान की ओर जाने से रोकना, उन पर अंकुश रखना / 4. आंतरशत्रुजय :- हृदय में काम, क्रोध, लोभ, मान (हठाग्रहादि), मद, हर्ष, ये छ: आंतरशत्रु है / इन पर विजय प्राप्त करना / इनकी आधीनता से धन, पूर्व पुण्य और धर्म आदि की हानि होती है / 5. अभिनिवेश का त्याग :- मन में अभिनिवेश यानी मताग्रह - दुराग्रह नहीं रखना / अन्यथा अपकीर्ति आदि होती है / 6. 'त्रिवर्गबाधा' त्याग :- ऐसा न करना जिससे झूठे आवेश 0232