________________ पच्चक्खामि, जाव साहू... पज्जुवासामि' इस पच्चक्खाण से मन में सांसारिक प्रवृत्तियों का त्याग धारण कर, हाथ जोड़कर 'मत्थएण वंदामि' करना / महान ब्रह्मचारी संयमी मुनि के दर्शन उपलब्ध होने पर हृदय में अपूर्व आह्लाद प्रगट होना चाहिए / दो खमासमणां (पंचांग प्रणाम) देने के बाद हाथ जोड़कर 'इच्छकार सुहराइ०' सूत्र बोलकर सुख-शाता पूछनी / बाद भात-पानी का लाभ देने की विनंती करनी / बाद, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुट्ठिओमि....इच्छं खामेमि राइयं' यह पाठ खड़े खड़े हाथ जोडकर बोलने के पश्चात् नीचे घुटने टेककर शेष अब्भुट्ठिओ सूत्र भूमि पर मस्तक और दो हाथ स्थापित कर बोलना / इसमें गुरु की अवज्ञा-आशातना का मिच्छामि दुक्कडं दिया जाता है, - 'मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो / ' तदुपरांत गुरु के पास से पच्चक्खाण लेना / पच्चक्खाण अथवा ज्ञान, वंदन करके ही लिया जाए / व्याख्यान भी वंदना पूर्वक ही सुना जाए / यह भी सावधानी रहे कि 'गुरू के सन्मुख अविनय न हो, उनकी बाहर निन्दा न हो, गुरु को कुछ भी अपमान-जनक वचन नहीं कहा जाए' इत्यादि गुरु के अविनयादि महान पापो से बचना है / __ घर आकर यदि पच्चक्खाण नवकारशी का हो तो वह निपटाकर गुरु महाराज के पास आकर व्याख्यान यानी आत्महितकर अमूल्य जिनवाणी का श्रवण करना / अंत में कोई न कोइ व्रत, नियम, अभिग्रह करना; जिससे श्रवण सफल हो और जीवन में प्रगति हो। 1658