________________ (1) प्रायश्चित्ततप :- प्रायश्चित्त यानि जो चित्त को प्रायः विशुद्ध करे / यह गुरु के समक्ष पापों का आलोचन (प्रकाशन) कर गुरुदत्त प्रतिक्रमण, तप आदि प्रायश्चित्त के वहन द्वारा होता है / प्रायश्चित्त आलोचन आदि 10 प्रकार के हैं / (2) विनय-तप : (i) बाह्य सेवारूप 'भक्ति', (ii) आंतरिक प्रीतिरूप 'बहुमान, (iii) प्रशंसा, (iv) निंदाका प्रतिकार, और (v) आशातना का त्याग, यों सामान्यतः पांच प्रकार से विनय करना भी तप है / इस विनय को ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मनोयोग, वचन-योग, काययोग व लोकोपचार,-इन सात में लगाने से, विनय के सात भेद होते हैं, - ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्रविनय, मनोयोग-विनय, वचनयोग-विनय, काययोग विनय और लोकोपचार-विनय / इस एकेक विनय के अवांतर में, - (1) ज्ञानविनय के 5 प्रकार हैं, (i) ज्ञान व ज्ञानीकी भक्ति, (ii) बहुमान, (iii) सर्वज्ञकथित पदार्थका सम्यक् श्रद्धान युक्त मनन, (iv) योगउपधान आदि ज्ञानाचारों के पालनपूर्वक ज्ञानग्रहण, और (v) इस का अभ्यास (पुनरावर्तन) आदि / (2) दर्शन विनय के 2 प्रकार है,-जो सम्यद्गर्शन गुण में अधिक हो, उनकी (1) 'सेवा-शुश्रूषा' (2) अनाशातना,-ये दो प्रकार है / 21398